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प्रश्न :
प्रश्न. भारत में अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गई स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी बंदोबस्त की तुलना करते हुए अंतर स्पष्ट कीजिये। इन भू-राजस्व प्रणालियों ने कृषि समाज और समग्र अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित किया? (250 शब्द)
17 Mar, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- ब्रिटिश भूमि राजस्व बंदोबस्त के संदर्भ में जानकारी देकर उत्तर दीजिये।
- स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी बंदोबस्त की प्रमुख विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिये।
- कृषि समाज और अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव को रेखांकित कीजिये।
- उनके परिणाम का उल्लेख करते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
अंग्रेज़ों ने भारत में भू-राजस्व संग्रह को अधिकतम करने और प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने के लिये अलग-अलग भू-राजस्व प्रणालियाँ शुरू कीं। स्थायी बंदोबस्त (वर्ष 1793) बंगाल और बिहार में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा शुरू किया गया था, जबकि रैयतवाड़ी बंदोबस्त (वर्ष 1820) मद्रास एवं बॉम्बे प्रेसीडेंसी में थॉमस मुनरो द्वारा लागू किया गया था।
मुख्य भाग:
प्रमुख विशेषताओं की तुलना:
विशेषता
स्थायी बंदोबस्त (ज़मींदारी प्रथा)
रैयतवाड़ी बंदोबस्त
परिचय
वर्ष 1793 में लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा
वर्ष 1820 में थॉमस मुनरो द्वारा
कवरेज
ब्रिटिश भारत का 19% (बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वाराणसी, मद्रास के उत्तरी ज़िले)
ब्रिटिश भारत का 51% (मद्रास, बॉम्बे, कर्नाटक के कुछ भाग)
भूमि का स्वामित्व
ज़मींदारों को वंशानुक्रमिक स्वामी के रूप में मान्यता दी गई
किसानों (रैयतों) को वंशानुक्रमिक स्वामी के रूप में मान्यता दी गई
राजस्व संग्रहण
ज़मींदारों द्वारा वसूला जाने वाला निश्चित एवं स्थायी राजस्व
किसानों से सीधे एकत्र किया गया राजस्व, समय-समय पर (प्रत्येक 20-30 वर्ष में) संशोधित
आय का हिस्सा
10/11 हिस्सा अंग्रेज़ों को, 1/11 हिस्सा ज़मींदारों को
अतिरिक्त फसल उत्पादन का 50% तक ब्रिटिशों को देय
कराधान में लचीलापन
संशोधन की अनुमति नहीं (निश्चित राजस्व)
भूमि उत्पादकता और स्थितियों के आधार पर आवधिक संशोधन
डिफॉल्ट परिणाम
यदि ज़मींदार राजस्व का भुगतान करने में विफल रहे तो भूमि ज़ब्त कर नीलाम कर दी जाती थी
किसानों को राजस्व का भुगतान करने के लिये विवश किया गया, जिससे वे कर्ज के जाल में फँसते गए और उनकी ज़मीन चली गई
बिचौलियों की भूमिका
उप-सामंतवाद का उदय, ज़मींदारों के पदानुक्रम का निर्माण (अनुपस्थित ज़मींदारी)
राजस्व अधिकारियों (पोलिगर, मीरासीदार) की उपस्थिति जो किसानों का शोषण करते थे
कृषि समाज और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
- ज़मींदारों और किसानों पर प्रभाव
- स्थायी बंदोबस्त ने शक्तिशाली ज़मींदारों के एक वर्ग का निर्माण किया, जिससे उप-सामंतवाद (ज़मींदारों के कई स्तर) उत्पन्न हुईं। किसान काश्तकार बन गए, जिन्हें प्रायः अत्यधिक किराया और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था।
- रैयतवाड़ी बंदोबस्त में किसानों को भूस्वामी के रूप में मान्यता दी गई, लेकिन राजस्व संग्रह का बोझ सीधे उन पर पड़ा, जिससे उच्च और अनम्य कराधान के कारण वे कर्ज के जाल में फँसते गए और अत्यधिक गरीबी में चले गए।
- कृषि पर प्रभाव
- स्थायी बंदोबस्त के कारण कृषि उत्पादकता में ठहराव आ गया क्योंकि ज़मींदारों के पास भूमि की गुणवत्ता सुधारने के लिये कोई प्रोत्साहन नहीं था। उच्च कराधान और अनुपस्थित ज़मींदारी के कारण मृदा की उर्वरता में गिरावट (विशेष रूप से बंगाल में) आई।
- रैयतवाड़ी बंदोबस्त ने शुरू में ब्रिटिश उद्योगों के लिये नकदी फसलों (जैसे कपास) को प्रोत्साहित किया, जिससे खाद्यान्न आपूर्ति कम हो गई और मुद्रास्फीति बढ़ गई। हालाँकि, अत्यधिक कराधान ने कृषि को लाभहीन बना दिया, जिससे भूमि का परित्याग हुआ।
- आर्थिक प्रभाव
- स्थायी बंदोबस्त से अंग्रेज़ों को स्थिर राजस्व प्राप्त हुआ, लेकिन बाद में उन्हें राजस्व बढ़ाने के लिये संशोधन खंड शामिल न करने का अफसोस हुआ।
- भूमि मूल्यांकन पर आधारित होने के बावजूद रैयतवाड़ी बंदोबस्त, उच्च कराधान को जन्म देता था, जिससे किसान साहूकारों के कर्ज में डूब जाते थे, जिसकी परिणति वर्ष 1875 के दक्कन दंगों जैसे विद्रोहों के रूप में हुई।
प्रतिरोध और परिणाम:
- स्थायी बंदोबस्त के कारण ज़मींदारों को परेशानी का सामना करना पड़ा, क्योंकि राजस्व भुगतान में चूक के कारण कई लोगों को अपनी ज़मीन खोनी पड़ी। किसानों का शोषण बढ़ता गया, जिससे उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
- रैयतवाड़ी बंदोबस्त को असहनीय कर बोझ के कारण किसान विद्रोह का सामना करना पड़ा, जिससे अंग्रेज़ों को दमनकारी राजस्व संग्रह की जाँच करने के लिये मजबूर होना पड़ा (उदाहरण के लिये: मद्रास टॉर्चर आयोग, 1885)।
निष्कर्ष:
स्थायी बंदोबस्त ने किसानों और कृषि विकास की कीमत पर ज़मींदारों को सशक्त किया, जबकि रैयतवाड़ी बंदोबस्त ने सीधे किसानों पर बोझ डाला, जिससे व्यापक गरीबी और विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हुई। भू-राजस्व संग्रह की दोनों प्रणालियाँ कृषि समृद्धि सुनिश्चित करने में विफल रहीं और भारत के औपनिवेशिक आर्थिक पतन में योगदान दिया।
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