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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. भारत की तटीय जैव-विविधता पर जलवायु परिवर्तन के पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का परीक्षण कीजिये। एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर संभावित दीर्घकालिक प्रभावों को कम करने में किस प्रकार मदद कर सकता है? (250 शब्द)

    05 Mar, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत के तटीय क्षेत्रों की सुभेद्यता के संदर्भ में जानकारी के साथ उत्तर दीजिये। 
    • तटीय जैव-विविधता और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर जलवायु परिवर्तन के पारिस्थितिक प्रभावों का गहन अध्ययन प्रस्तुत कीजिये। 
    • तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर दीर्घकालिक प्रभावों को कम करने में एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन की भूमिका पर प्रकाश डालिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये। 

    परिचय: 

    एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन (ICZM) संवहनीय प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिये एक गतिशील, बहु-विषयक और पुनरावृत्तीय प्रक्रिया है, जो भारत के 7,500 किलोमीटर लंबे समुद्र तट के लिये आवश्यक है तथा विविध पारिस्थितिक तंत्रों एवं आजीविका को बनाए रखता है। 

    • हालाँकि, जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे: समुद्र का बढ़ता स्तर, क्षरण और चरम मौसमी घटनाएँ, इस नाजुक संतुलन को बिगाड़ रहे हैं तथा पर्यावरण एवं तटीय समुदायों दोनों को खतरे में डाल रहे हैं।

    मुख्य भाग: 

    तटीय जैव-विविधता पर जलवायु परिवर्तन के पारिस्थितिक प्रभाव

    • आवास-ह्रास और क्षरण
      • समुद्र-स्तर में वृद्धि (SLR): वर्ष 1900 के बाद से, वैश्विक औसत समुद्र स्तर में लगभग 15-20 सेमी. की वृद्धि हुई है, जो ऐतिहासिक औसत समुद्र स्तर की तुलना में बहुत तीव्र दर है।
        • इससे सुंदरबन जैसे पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा हो सकता है, जिससे उसका अधिकांश क्षेत्र नष्ट हो सकता है और रॉयल बंगाल टाइगर जैसी प्रजातियाँ खतरे में पड़ सकती हैं।
        • सतभाया (ओडिशा) और वाइपिन द्वीप (केरल) जैसे क्षेत्रों में तीव्रता से तटीय क्षरण हो रहा है, जिससे आवास नष्ट हो रहे हैं।
      • प्रवाल विरंजन: समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण मन्नार की खाड़ी में वृहत स्तर पर प्रवाल विरंजन की घटनाएँ हुई हैं, जिससे समुद्री खाद्य शृंखलाएँ बाधित हुई हैं।
    • समुद्री प्रजातियों में गिरावट और खाद्य शृंखलाओं में व्यवधान
      • प्रजनन और नेस्टिंग साइट्स की क्षरण: बढ़ते जल स्तर के कारण ओडिशा में ओलिव रिडले टर्टल्स (कछुओं) के नेस्टिंग साइट्स को खतरा उत्पन्न हो गया है, जिसके कारण उनकी जनसंख्या में गिरावट आ रही है।
      • मीन भंडार में कमी: समुद्र के तापमान और लवणता में परिवर्तन से मीन प्रजातियों के प्रजनन एवं प्रवासन प्रक्रियाएँ प्रभावित होती हैं, जिससे हिल्सा और गोल्डन एन्कोवी जैसी प्रजातियाँ प्रभावित हो रही हैं। 
    • प्राकृतिक आपदाओं के प्रति भेद्यता में वृद्धि
      • मैंग्रोव जैसे प्राकृतिक अवरोधों (जो मंद ढलानों पर तरंग ऊर्जा को 93-98% तक कम कर देते हैं) के विनाश से चक्रवातों और तूफानी लहरों का प्रभाव बढ़ जाता है, जैसा कि चक्रवात अम्फान के दौरान देखा गया था। 

    तटीय समुदायों पर जलवायु परिवर्तन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

    • आजीविका को खतरा
      • मात्स्यिकी: देश में मात्स्यिकी और जलकृषि क्षेत्र कुल 28 मिलियन मछुआरों को आजीविका सहायता प्रदान करता है। 
        • समुद्र का बढ़ता स्तर और मत्स्य भंडार में कमी से उनकी आय एवं खाद्य सुरक्षा को खतरा है।
      • कृषि: समुद्री जल के प्रवेश से मृदा की लवणता बढ़ जाती है, जिससे सुंदरबन और गुजरात के कच्छ क्षेत्र जैसे तटीय क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता कम हो जाती है।
      • पर्यटन: गोवा और केरल जैसे लोकप्रिय तटीय स्थलों में तटीय क्षरण में वृद्धि हो रही है, जिससे पर्यटन उद्योग प्रभावित हो रहा है।
    • विस्थापन और बस्तियों की क्षति
      • बढ़ते समुद्री स्तर के कारण आने वाली बाढ़ से वर्ष 2050 तक 36 मिलियन भारतीय अपने घर और आजीविका खो सकते हैं।
      • ओडिशा के 16 गाँव पहले ही समुद्र में जलमग्न हो चुके हैं, जिससे वहाँ के निवासियों को स्थानांतरित होना पड़ रहा है।
    • स्वास्थ्य एवं जल सुरक्षा संबंधी चिंताएँ
      • अलवण जलीय स्रोतों में लवणता के अंतर्वेधन से जलजनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
        • तटीय क्षेत्रों में अधिक तापमान के कारण मलेरिया और डेंगू जैसी रोगवाहक जनित बीमारियाँ फैलती हैं।

    तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर दीर्घकालिक प्रभावों को कम करने में एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन की भूमिका: 

    • सतत् तटीय विकास और विनियमन
      • तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) अधिसूचना (1991, वर्ष 2019 में संशोधित) का उद्देश्य संवेदनशील तटीय क्षेत्रों के समीप निर्माण को प्रतिबंधित करके पर्यावरण संरक्षण के साथ विकास को संतुलित करना है।
        • ICZM योजनाएँ: विश्व बैंक द्वारा सहायता प्राप्त ICZM परियोजना के अंतर्गत ओडिशा, गुजरात और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने तटीय संरक्षण रणनीति विकसित की है।
    • प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का पुनर्जीवन 
      • मैंग्रोव वनरोपण: मैंग्रोव का रोपण क्षरण एवं चक्रवातों के विरुद्ध एक प्राकृतिक बफर के रूप में कार्य करता है। 
        • भारत की MISHTI योजना का उद्देश्य मैंग्रोव क्षेत्र का विस्तार करना है।
      • प्रवाल भित्तियों का संरक्षण: मन्नार की खाड़ी में ‘प्रवाल पुनर्स्थापन कार्यक्रम’ जैसी परियोजनाएँ क्षतिग्रस्त प्रवाल भित्तियों के पुनर्निर्माण में मदद करती हैं।
    • बुनियादी अवसंरचना और आपदा समुत्थानशीलन
      • समुद्री अवरोध और तटबंध: मुंबई और चेन्नई जैसे तटीय शहर तूफानी लहर अवरोधों में निवेश कर रहे हैं।
      • पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ: भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (INCOIS) तटीय खतरों के लिये वास्तविक काल चेतावनी प्रदान करता है।
    • संधारणीय आजीविका को बढ़ावा देना
      • लवण सहिष्णु फसल किस्मों और प्लवन कृषि/फ्लोटिंग एग्रीकल्चर (सुंदरबन में प्रचलित) को प्रोत्साहित करना।
      • मछुआरा समुदायों के लिये इकोटूरिज़्म और कृषि जैसी वैकल्पिक आजीविका का समर्थन करना।

    निष्कर्ष: 

    ICZM स्थायी नीतियों, पारिस्थितिकी तंत्र के पुनर्जीवन और सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से जलवायु अनुकूलन को बढ़ावा देता है। भारत के तटों की सुरक्षा के लिये SDG 13 (जलवायु परिवर्तन कार्रवाई) और SDG 14 (जलीय जीवों की सुरक्षा) के साथ संरेखित होकर सभी स्तरों पर समन्वित प्रयास अत्यंत आवश्यक हैं।

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