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प्रश्न :
प्रश्न. कृषि के बढ़ते व्यावसायीकरण ने ग्रामीण सामाजिक संरचनाओं और लैंगिक संबंधों को कैसे रूपांतरित किया है? समकालीन प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
24 Feb, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाजउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- कृषि के व्यावसायीकरण के प्रभाव के संदर्भ में जानकारी प्रस्तुत करते हुए उत्तर दीजिये।
- ग्रामीण सामाजिक संरचनाओं और लिंग संबंधों पर प्रभावों की चर्चा कीजिये।
- एक दूरदर्शी दृष्टिकोण के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
बाज़ारोन्मुखी उत्पादन, मशीनीकरण और कृषि व्यवसाय के एकीकरण द्वारा संचालित कृषि के व्यावसायीकरण ने ग्रामीण सामाजिक संरचनाओं और लैंगिक संबंधों को महत्त्वपूर्ण रूप से बदल दिया है। यद्यपि इसने ग्रामीण आय और कृषि उत्पादकता में वृद्धि की है, फिर भी इसने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बढ़ाया है, पारंपरिक श्रम गतिशीलता में परिवर्तन किया है और ग्रामीण भारत में लैंगिक असमानताओं को भी बढ़ावा दिया है।
मुख्य भाग:
ग्रामीण सामाजिक संरचनाओं पर प्रभाव:
- कृषि पूंजीवाद और वर्ग स्तरीकरण का उदय
- जीविका कृषि से नकदी फसलों और अनुबंध कृषि की ओर संक्रमण से बड़े भूस्वामियों को लाभ हुआ है, जबकि लघु और भूमिहीन किसान हाशिये पर चले गए हैं।
- काश्तकार और बटाईदार किसान प्रायः बढ़ती लागत के कारण संघर्ष करते हैं, जिसके कारण ग्रामीण ऋणग्रस्तता और पलायन होता है।
- जीविका कृषि से नकदी फसलों और अनुबंध कृषि की ओर संक्रमण से बड़े भूस्वामियों को लाभ हुआ है, जबकि लघु और भूमिहीन किसान हाशिये पर चले गए हैं।
- पारंपरिक जाति-आधारित व्यवसायों का पतन
- व्यावसायीकरण ने जजमानी (पारंपरिक सेवा) प्रणाली पर निर्भरता कम कर दी है, जिससे जाति-आधारित श्रम विभाजन असंतुलित हो गया है।
- मशीनीकरण ने दलितों और निम्न जाति के श्रमिकों को विस्थापित कर दिया है, जो ऐतिहासिक रूप से प्रमुख कृषि श्रमिक के रूप में काम करते थे।
- भू-स्वामित्व पैटर्न में परिवर्तन
- कृषि व्यवसाय, अनुबंध कृषि और कॉर्पोरेट कृषि के लिये भूमि की बढ़ती मांग के कारण भूमि का एकीकरण कुछ ही लोगों के हाथों में सीमित हो गया है।
- भूमि पट्टे एवं किरायेदारी अनुबंध आम हो गए हैं, जिससे लघु और सीमांत किसानों के लिये भूमि का स्वामित्व असुरक्षित हो गया है।
लैंगिक संबंधों पर प्रभाव:
- सशक्तीकरण के बिना कृषि का स्त्रीकरण
- पुरुषों के पलायन के कारण, ग्रामीण भारत में 75% महिला श्रमिक अब कृषि में कार्यरत हैं, लेकिन उनके पास भूमि स्वामित्व एवं ऋण, प्रौद्योगिकी और इनपुट तक अभिगम का अभाव है।
- महिलाओं के बढ़ते कार्यभार के बावजूद उन्हें अधिक वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिली है, क्योंकि भूमि स्वामित्व अभी भी पुरुषों के हाथ में (भारत में केवल 13% महिलाओं के पास भूमि है) है।
- घरेलू लैंगिक भूमिकाओं में बदलाव
- महिलाओं ने कृषि में अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ उठा ली हैं, फिर भी घरेलू कामकाज़ और देखभाल का बोझ उन पर ही रहता है।
- कृषि उत्पादन में महिलाओं की बढ़ती भूमिका के बावजूद, कृषि गतिविधियों में निर्णय लेने में अभी भी परिवार के पुरुष सदस्यों का वर्चस्व है।
- वेतन और रोज़गार के अवसरों में लैंगिक असमानता
- महिला कृषि श्रमिकों को समान कार्य के लिये पुरुषों की तुलना में 20-30% कम भुगतान किया जाता है।
- व्यावसायीकरण के कारण पारंपरिक कृषि-आधारित गतिविधियों जैसे बीज संरक्षण, खाद्य प्रसंस्करण और पशुपालन में महिलाओं की नौकरियाँ खत्म हो गई हैं, जो अब मशीनीकृत या औद्योगिक हो गई हैं।
- महिला सहकारी समितियों और स्वयं सहायता समूहों का उदय
- पुरुष-प्रधान कृषि नीतियों का मुकाबला करने के लिये, महिलाओं ने वित्तीय और सामाजिक सशक्तीकरण हासिल करने के लिये स्वयं सहायता समूहों (SHG) और सहकारी समितियों (जैसे: केरल में सेवा, कुडुम्बश्री ) में संगठन किया है।
- महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना (MKSP) जैसी पहल का उद्देश्य कृषि में महिलाओं की भूमिका को पहचान देना और सुदृढ़ करना है।
निष्कर्ष:
ग्रामीण भारत में कृषि के व्यावसायीकरण ने वर्ग और लैंगिक असमानताओं को बढ़ावा दिया है, जिससे बड़े भू-स्वामियों को लाभ हुआ है जबकि लघु किसानों और महिलाओं को हाशिये पर रखा गया है। महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद, भूमि अधिकार, ऋण और निर्णय लेने में संस्थागत बाधाएँ बनी हुई हैं। भूमि सुधार, लिंग-संवेदनशील नीतियाँ और समावेशी ऋण सुलभता जैसे नीतिगत उपाय समतापूर्ण ग्रामीण विकास के लिये आवश्यक हैं।
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