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प्रश्न :
प्रश्न. "औपनिवेशिक भारत में जनजातीय विद्रोह न केवल ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिरोध थे, बल्कि वे स्वदेशी पहचान और स्वायत्तता के दावों का भी प्रतीक थे।" उपयुक्त उदाहरणों सहित विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
24 Feb, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में जनजातीय विद्रोहों की पृष्ठभूमि के संदर्भ में जानकारी प्रस्तुत करते हुए उत्तर दीजिये।
- स्वदेशी पहचान और स्वायत्तता की अभिव्यक्ति के रूप में प्रमुख विद्रोहों पर प्रकाश डालिये।
- उनके प्रभाव और विरासत पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
औपनिवेशिक भारत में जनजातीय विद्रोह न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध के स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थे, बल्कि स्वदेशी पहचान और स्वायत्तता की सचेत अभिव्यक्ति भी थे। ब्रिटिश नीतियों, जिनमें नई भू-राजस्व प्रणालियों को लागू करने, धार्मिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप करने और पारंपरिक शासन को बाधित करने के प्रयास किये गे थे, को उनके जीवन शैली के लिये प्रत्यक्ष खतरे के रूप में देखा गया।
मुख्य भाग:
जनजातीय विद्रोह स्वदेशी पहचान और स्वायत्तता की अभिव्यक्ति के रूप में
- पारंपरिक भूमि और संसाधनों की रक्षा
- संथाल विद्रोह (वर्ष 1855-56):
- सिद्धू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में वर्तमान झारखंड के संथालों ने ज़मींदारों, साहूकारों और ब्रिटिश अधिकारियों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया।
- उन्होंने जमींदारी प्रथा, जिसने उनकी पारंपरिक भू-स्वामित्व संरचनाओं का स्थान ले लिया था,के लागू किये जाने का विरोध किया।
- संथालों ने अपनी भूमि को पुनः प्राप्त करने के लिये ठाकुर (उनके अधिष्ठाता) से दैवीय प्रेरणा का दावा किया, जो उनकी जातीय पहचान और आध्यात्मिक स्वायत्तता का प्रतीक था।
- कोल विद्रोह (वर्ष 1831-32):
- बुद्धू भगत के नेतृत्व में छोटानागपुर की कोल जनजातियों ने ब्रिटिश भूमि नीतियों के तहत अपनी भूमि बाह्य लोगों को हस्तांतरित किये जाने के खिलाफ विद्रोह किया।
- यह विद्रोह केवल आर्थ से संबद्ध नहीं था बल्कि अपनी सामाजिक-राजनीतिक पहचान को बचाए रखने का संघर्ष था, क्योंकि कोल पारंपरिक रूप से अपने ग्राम का प्रबंधन जनजातीय परिषदों के माध्यम से करते थे।
- रम्पा विद्रोह (वर्ष 1879-80):
- आंध्र प्रदेश की पहाड़ी जनजातियों ने वन विनियमन अधिनियम के खिलाफ विद्रोह किया, जिसने भोजन और आजीविका के लिये वनों तक उनके अभिगम को प्रतिबंधित कर दिया था।
- यह विद्रोह प्राकृतिक संसाधनों पर स्वायत्तता के लिये एक लड़ाई थी, जो पर्यावरण के साथ उनके गहन संबंध को दर्शाता है।
- संथाल विद्रोह (वर्ष 1855-56):
- सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं का संरक्षण
- खोंड विद्रोह (वर्ष 1837-1856):
- ओडिशा के खोंडों ने उस समय विद्रोह कर दिया जब अंग्रेज़ों ने उनकी मेरिया (मानव बलि) प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया, जो उनकी धार्मिक मान्यताओं का केंद्र थी।
- यह विद्रोह न केवल औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध था, बल्कि उनकी धार्मिक स्वायत्तता का भी दावा था, क्योंकि वे अंग्रेज़ों को बाहरी लोग मानते थे, जो उनपर विदेशी मूल्यों को थोप रहे थे।
- मुंडा विद्रोह (वर्ष 1899-1900):
- बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए इस विद्रोह का उद्देश्य मुंडा राज (स्व-शासन) को स्थापित करना और ब्रिटिश द्वारा लागू की गई सामंती भूमि नीतियों को खारिज़ करना था, जिसके तहत जनजातीय भूमि को दिकुओं को हस्तांतरित किया जा रहा था।
- बिरसा मुंडा ने अपने लोगों के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान की कल्पना की थी तथा हिंदू ज़मींदारों और ईसाई मिशनरियों दोनों को अस्वीकार करने का आह्वान किया था।
- यह विद्रोह एक राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन भी था, जो स्वशासन के लिये आदिवासी आकांक्षाओं को दर्शाता था।
- खोंड विद्रोह (वर्ष 1837-1856):
- स्वशासन और राजनीतिक स्वायत्तता का दावा
- भील विद्रोह (वर्ष 1818-1831):
- पश्चिमी भारत के भीलों ने ब्रिटिश भूमि और कराधान नीतियों के खिलाफ विद्रोह किया।
- उनका विद्रोह अपने पारंपरिक प्रमुखों के अधीन स्वशासन को पुनः प्राप्त करने तथा अपने राजनीतिक कार्यढाँचे में बाह्य हस्तक्षेप का विरोध करने के लिये था।
- कुकी विद्रोह (वर्ष 1917-1919):
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने मणिपुर की कुकी जनजातियों को बलात् श्रम के लिये भर्ती करने का प्रयास किया तो उन्होंने विद्रोह कर दिया।
- यह विद्रोह जनजातीय स्वतंत्रता का एक सशक्त दावा था, जिसमें उन्होंने अपने समुदाय पर ब्रिटिश सत्ता को अस्वीकार किया था।
- खासी विद्रोह (वर्ष 1829-1833):
- तीरथ सिंह के नेतृत्व में मेघालय के खासियों ने अपने क्षेत्र से होकर सड़क बनाने के ब्रिटिश प्रयासों का विरोध किया, जिससे उनकी स्वायत्तता को खतरा था।
- यह विद्रोह सिर्फ भूमि के लिये विरोध नहीं था बल्कि अपनी मातृभूमि पर औपनिवेशिक नियंत्रण के खिलाफ प्रतिरोध था।
- भील विद्रोह (वर्ष 1818-1831):
प्रभाव और विरासत
- जनजातीय पहचान को बल मिला: कई विद्रोहों, विशेषकर संथाल और मुंडा विद्रोहों ने जातीय गौरव एवं एकता की भावना को बल दिया तथा जनजातीय चेतना को दृढ़ किया।
- भावी जनजातीय आंदोलनों को प्रेरणा: भूमि अलगाव और आर्थिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा, जिसने बाद के जनजातीय अधिकार आंदोलनों को प्रभावित किया।
- जनजातीय स्वायत्तता की मान्यता: इन विद्रोहों ने अंततः स्वतंत्र भारत में जनजातीय समुदायों के लिये संवैधानिक सुरक्षा उपायों में योगदान दिया, जिसमें स्वशासन के लिये पाँचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधान भी शामिल थे।
निष्कर्ष
औपनिवेशिक भारत में जनजातीय विद्रोह केवल आर्थिक या राजनीतिक प्रतिरोध नहीं थे, बल्कि स्वदेशी पहचान, सांस्कृतिक संरक्षण और स्वशासन के शक्तिशाली दावे थे। यद्यपि अधिकांश विद्रोहों को दबा दिया गया, लेकिन उन्होंने स्वतंत्र भारत में जनजातीय अधिकारों, स्वशासन और संवैधानिक सुरक्षा के लिये भविष्य के संघर्षों की नींव रखी।
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