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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न: “अन्यायपूर्ण कानूनों का पालन करना अपने आप में अनैतिक है।” कानूनी आज्ञाकारिता और नैतिक प्रतिरोध की नैतिकता का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)

    06 Feb, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • प्रश्न में उल्लिखित तर्क को उचित ठहराते हुए उत्तर दीजिये। 
    • अन्यायपूर्ण कानूनों के प्रति नैतिक प्रतिरोध का समर्थन करने वाले तर्क दीजिये। 
    • अन्यायपूर्ण कानूनों के बावजूद विधिक अनुपालन के तर्कों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये। 
    • विधिक अनुपालन और नैतिक प्रतिरोध के बीच संतुलन के उपाय सुझाइये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये। 

    परिचय: 

    कानून का उद्देश्य न्याय को बनाए रखना है, लेकिन इतिहास से पता चलता है कि विधि व्यवस्थाओं ने कभी-कभी उत्पीड़न को बढ़ावा दिया है, जैसे कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद। इससे एक नैतिक दुविधा उत्पन्न होती है कि क्या लोगों को अन्यायपूर्ण कानूनों का पालन करना चाहिये या नैतिक आधार पर उनका विरोध करना चाहिये। 

    मुख्य भाग: 

    अन्यायपूर्ण कानूनों के प्रति नैतिक प्रतिरोध का समर्थन करने वाले तर्क

    • विधिवाद पर न्याय की प्रधानता: जॉन रॉल्स के न्याय के सिद्धांत जैसे नैतिक सिद्धांत शासन के मूल के रूप में निष्पक्षता पर ज़ोर देते हैं। निष्पक्षता का उल्लंघन करने वाले कानून (जैसे- जाति-आधारित भेदभाव) वैधता से रहित होते हैं।
      • उदाहरण: महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन ने औपनिवेशिक कानूनों को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि व्यापक नैतिक कल्याण के लिये ‘नमक कर’ जैसे अन्यायपूर्ण कानूनों का विरोध किया जाना चाहिये।
    • अन्यायपूर्ण कानून लोकतांत्रिक मूल्यों को कमज़ोर करते हैं: लोकतंत्र में, विधिक अनुपालन न्याय पर निर्भर होनी चाहिये। असहमति या मानवाधिकारों को दबाने वाले कानूनों (जैसे: राजनीतिक दमन के लिये प्रयोग किये जाने वाले आपातकाल कानून) पर सवाल उठाया जाना चाहिये।
      • उदाहरण: आपातकाल (वर्ष 1975-77) के दौरान आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) जैसे निवारक प्रतिषेध कानूनों के दुरुपयोग के कारण नागरिक समाज, पत्रकारों और राजनीतिक नेताओं द्वारा व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया जो अन्यायपूर्ण एवं दमनकारी माने जाने वाले कानूनों के प्रति नैतिक प्रतिरोध का उदाहरण था।
    • नैतिक विवेक कानूनी अधिकार से ऊपर होता है: जब कानून मौलिक अधिकारों और मानव गरिमा के विपरीत होते हैं तो नैतिक ज़िम्मेदारी कानूनी बाधाओं से ऊपर होती है। 
      • उदाहरण: वर्ष 1927 के ‘महाड़ सत्याग्रह’ में अंबेडकर का नेतृत्व, जहाँ उन्होंने और उनके अनुयायियों ने दलितों को सार्वजनिक जल टैंक का उपयोग करने से प्रतिबंधित करने वाले स्थानीय कानूनों की अवहेलना की।

    अन्यायपूर्ण कानूनों के बावजूद विधिक अनुपालन के लिये तर्क

    • विधि का शासन: विधिक अनुपालन समाज की स्थिरता और कामकाज को सुनिश्चित करती है। विधि का शासन व्यवस्था बनाए रखने, अराजकता को रोकने तथा यह सुनिश्चित करने के लिये मौलिक है कि समाज पूर्वानुमानित रूप से संचालित हो। 
      • कानूनों का उल्लंघन, भले ही इसे अन्यायपूर्ण माना जाए, अराजकता का कारण बन सकता है तथा सामाजिक सामंजस्य को कमज़ोर कर सकता है।
    • संस्थाओं के माध्यम से कानूनी सुधार: कानूनी प्रणालियों को न्यायपालिका और विधायिका जैसी स्थापित व्यवस्थाओं के माध्यम से विकसित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है। 
      • विधि की अवज्ञा से समय से पहले ही ये संस्थागत प्रक्रियाएँ कमज़ोर हो सकती हैं और आवश्यक कानूनी सुधारों में विलंब हो सकता है। इन संस्थाओं में शामिल होने से न्याय के लिये अधिक धारणीय उपाय मिल सकता है।
    • व्यक्तिगत नैतिकता की असफलता से बचाव: यदि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत नैतिकता के आधार पर यह चुनना पड़े कि उसे किन कानूनों का पालन करना है, तो इससे न्याय का असंगत अनुप्रयोग हो सकता है। 
      • इससे ऐसा समाज निर्मित हो सकता है जहाँ व्यक्ति सही और गलत की व्यक्तिपरक व्याख्या के आधार पर कार्य करेंगे, जिससे विधिक सामंजस्य कमज़ोर होगी।
      • उदाहरण: कराधान कानून कुछ समूहों के लिये अनुचित लग सकते हैं, लेकिन चुनिंदा गैर-अनुपालन की अनुमति देने से आर्थिक स्थिरता और शासन व्यवस्था बाधित होगी।

    विधिक अनुपालन और नैतिक प्रतिरोध में संतुलन

    • अहिंसक सविनय अवज्ञा: नैतिक प्रतिरोध को अन्यायपूर्ण कानूनों को चुनौती देते समय हिंसा और विनाश से बचना चाहिये।
      • उदाहरण: महात्मा गांधी का नमक सत्याग्रह (वर्ष 1930) औपनिवेशिक उत्पीड़न का प्रतिरोध करने का एक शांतिपूर्ण लेकिन शक्तिशाली तरीका था।
    • लोकतांत्रिक और कानूनी तंत्र का उपयोग करना: प्रत्यक्ष अवज्ञा के बजाय, व्यक्ति अन्यायपूर्ण कानूनों को बदलने के लिये न्यायिक समीक्षा, जनहित याचिका (PIL) और विधायी वकालत का प्रयोग कर सकते हैं।
      • उदाहरण: भारत में केशवानंद भारती केस (वर्ष 1973) ने मूल संरचना सिद्धांत को जन्म दिया, जिससे संविधान में मनमाने संशोधनों को रोका गया।
    • प्राधिकारियों के साथ रचनात्मक वार्ता में शामिल होना: प्रत्यक्ष अवज्ञा के बजाय, परामर्श के माध्यम से नीति निर्माताओं और प्रशासकों के साथ विमर्श करने से नैतिक शासन की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।
      • उदाहरण: सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम (वर्ष 2005) मौजूदा गोपनीयता कानूनों की पूर्ण अवहेलना के बजाय सांसदों के साथ निरंतर वार्ता और संवाद से उभरा है।

    निष्कर्ष: 

    अन्यायपूर्ण कानूनों का आँख मूँदकर पालन करना नैतिक रूप से संदिग्ध है, लेकिन पूर्ण अवज्ञा अव्यवस्था का कारण बन सकती है। आदर्श दृष्टिकोण न्याय, अहिंसा और संवैधानिक साधनों द्वारा निर्देशित सविनय अवज्ञा है। जैसा कि गांधी ने कहा, "एक अन्यायपूर्ण कानून अपने आप में हिंसा का एक प्रकार है। इसके उल्लंघन के लिये गिरफ्तारी और भी अधिक हिंसा है।" इसलिये, विधिक अनुपालन का सदैव नैतिक विवेक और सामाजिक कल्याण के प्रकाश में मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है।

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