उत्तर :
भारत में हिंदू और इस्लामिक वास्तुकलाओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से एक नई इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का विकास हुआ। इस वास्तुकला के विकास में गुलाम वंश के योगदान को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है-
- कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली विजय के उपलक्ष्य में तथा इस्लाम को प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से 1192 में दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया। इसके प्रांगण में स्थित लौह-स्तंभ पर चौथी शताब्दी के ब्राह्मी लिपि के अभिलेख मौजूद हैं। इसे ‘अनंग पाल की किल्ली’ भी कहते हैं।
- ऐबक ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में ही कुतुबमीनार का निर्माण शुरू करवाया, जिसे इल्तुतमिश ने पूरा करवाया।
- ऐबक ने ही अजमेर में ‘अढाई दिन का झोंपड़ा’ नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस मस्जिद पर भारतीय प्रभाव इस्लामिक प्रभाव से अधिक माना जाता है, इसलिये इसे हिंदू इमारत के ध्वंस पर बनी मस्जिद कहा जाता है।
- कुतुबमीनार के निकट 1231 में इल्तुतमिश ने अपने बड़े पुत्र नासिरुद्दीन महमूद की स्मृति में सुल्तानगढ़ी के मकबरे का निर्माण करवाया। यह सल्तनत काल का पहला मकबरा है। यहाँ अष्टकोणीय चबूतरे पर निर्मित मेहराबों में मुस्लिम कला एवं गुंबद के आकार की छत में हिंदू कला शैली का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
- इल्तुतमिश ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के निकट ही 1235 में स्वयं के मकबरे का निर्माण करवाया।
- क़ुतुब परिसर में ही स्थित सुल्तान बलबन के मकबरे में सर्वप्रथम वास्तविक मेहराब का रूप देखने को मिलता है।
अतः इंडो-इस्लामिक कला के विकास में गुलाम वंश के शासकों के योगदान के कई प्रमाण मौजूद हैं।