- फ़िल्टर करें :
- भूगोल
- इतिहास
- संस्कृति
- भारतीय समाज
-
प्रश्न :
प्रश्न: "भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रेस ने जनमत को संगठित करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई।" इस संदर्भ में परीक्षण कीजिये कि औपनिवेशिक नीतियों ने असहमति की इस आवाज़ को दबाने हेतु क्या उपाय किये? (250 शब्द)
27 Jan, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में प्रेस के उदय और जनमत को संगठित करने में इसकी भूमिका के संदर्भ में संक्षेप में बताते हुए उत्तर दीजिये।
- जनमत जुटाने में प्रेस की भूमिका पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- प्रेस को दबाने की औपनिवेशिक नीतियों पर प्रकाश डालिये।
- दमन के प्रति राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रेस के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय स्वामित्व वाले समाचार पत्रों के माध्यम से अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषाओं में प्रेस का उदय हुआ, जो औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ जनमत जुटाने में सहायक बने।
- ये समाचार पत्र औपनिवेशिक नीतियों की आलोचना करते हुए स्वशासन, लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता के विचारों का प्रसार करने में महत्त्वपूर्ण थे।
- प्रत्युत्तर में, ब्रिटिश सरकार ने इस असंतोष को दबाने के लिये कई दमनकारी नीतियाँ लागू कीं।
मुख्य भाग:
जनमत जुटाने में प्रेस की भूमिका
- जागरूकता और राजनीतिक शिक्षा: केसरी (मराठी), द हिंदू और अमृत बाज़ार पत्रिका जैसे समाचार पत्रों ने राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया तथा जनता को नागरिक अधिकारों, लोकतंत्र व औद्योगीकरण के बारे में शिक्षित किया।
- जनमत का निर्माण: प्रेस ने भारतीयों के बीच एकता का आग्रह किया, ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की तथा अकाल कुप्रबंधन और शोषणकारी कराधान जैसी भेदभावपूर्ण प्रथाओं का विरोध किया।
- राष्ट्रीय नेताओं के लिये मंच: बाल गंगाधर तिलक, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और दादाभाई नौरोजी जैसे नेताओं ने राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार करने तथा सामूहिक प्रतिरोध को प्रेरित करने के लिये समाचार पत्रों को मंच के रूप में इस्तेमाल किया।
- सुदूर क्षेत्रों में राजनीतिक लामबंदी: समाचार पत्र सुदूर गाँवों तक भी पहुँचे, जहाँ स्थानीय पुस्तकालयों में संपादकीय एवं लेख पढ़े गए, जिससे चर्चा और राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा मिला।
प्रेस को दबाने की औपनिवेशिक नीतियाँ
- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 (गैगिंग एक्ट)
- इसका उद्देश्य स्थानीय प्रेस को दबाना था, जो ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करता था, विशेष रूप से 1876-77 के अकाल और असाधारण दिल्ली दरबार जैसी घटनाओं के दौरान।
- प्रावधान:
- यदि समाचार-पत्रों के कारण ‘असंतोष’ या धार्मिक/जाति-आधारित द्वेष उत्पन्न होता है तो ज़िला मजिस्ट्रेट सुरक्षा जमा की मांग कर सकते हैं और प्रेस उपकरण जब्त कर सकते हैं।
- मजिस्ट्रेट के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती थी।
- अधिनियम से छूट पाने के लिये स्थानीय भाषा के समाचार-पत्रों पर पूर्व-सेंसरशिप अनिवार्य कर दी गई।
- जनता के विरोध के कारण वर्ष 1882 में लॉर्ड रिपन ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया।
- IPC की धारा 124A और 153A (राजद्रोह कानून)
- धारा 124A के तहत ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असंतोष उत्पन्न करने के किसी भी प्रयास को अपराध घोषित किया गया, जिसके लिये आजीवन कारावास सहित दंड का प्रावधान था।
- धारा 153A उन लेखों पर लक्षित थी जो विभिन्न वर्गों के बीच द्वेष उत्पन्न करते थे, इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश विरोधी एकता को रोकना था।
- उदाहरण: केसरी में बाल गंगाधर तिलक के लेखन के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा, जिसमें उनके लेखों और भाषणों के लिये मांडले में छह वर्ष की सजा भी शामिल है।
- समाचार पत्र (अपराधों को उकसाना) अधिनियम, 1908
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान उग्रवादी राष्ट्रवादी प्रेस को दबाने के लिये अधिनियमित किया गया।
- मजिस्ट्रेटों को मुद्रणालयों को ज़ब्त करने तथा हिंसा या विद्रोह भड़काने वाली सामग्री प्रकाशित करने वाले समाचार पत्रों को दंडित करने का अधिकार दिया गया।
- भारतीय प्रेस अधिनियम, 1910
- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के कठोर प्रावधानों को पुनर्जीवित किया गया, जिसके तहत मुद्रकों को प्रतिभूति जमा करने तथा सेंसरशिप के लिये समाचार पत्रों की प्रतियाँ सरकार को प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी।
- इस अधिनियम का उद्देश्य राष्ट्रवादी समाचार-पत्रों पर अंकुश लगाना तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से प्रतिबंधित करना था।
दमन के प्रति राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया:
- रणनीतिक विध्वंस: राष्ट्रवादी पत्रकारों ने सेंसरशिप से बचने के लिये रचनात्मक रणनीति का प्रयोग किया।
- उदाहरण के लिये, उन्होंने आलोचनात्मक लेखों की शुरुआत ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की घोषणाओं से की या अप्रत्यक्ष रूप से औपनिवेशिक शासन पर निशाना साधने के लिये अंग्रेज़ी समाचार पत्रों से साम्राज्यवाद की आलोचनाओं को उद्धृत किया।
- जन आंदोलन: दमनकारी कानून प्रायः विपरीत प्रभाव डालते हैं, जिससे विरोध प्रदर्शनों को बढ़ावा मिलता है और राष्ट्रवादी आंदोलन के लिये जनता का समर्थन बढ़ता है।
- स्वदेशी आंदोलन की भूमिका: इस अवधि के दौरान, केसरी और बंदे मातरम जैसे समाचार पत्रों ने सरकारी दमन के बावजूद स्वदेशी आंदोलन एवं बहिष्कार का खुले तौर पर समर्थन किया।
निष्कर्ष:
प्रेस ने राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देने, राष्ट्रवादी विचारों को प्रसारित करने और औपनिवेशिक नीतियों की आलोचनात्मक जाँच करके भारत के स्वतंत्रता संग्राम की जीवनरेखा के रूप में कार्य किया। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और राजद्रोह कानूनों जैसे दमनकारी कानूनों के बावजूद, समुत्थानशील राष्ट्रवादी प्रेस स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख स्तंभ बन गया, जिसने स्वतंत्रता और लोकतंत्र के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाया।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print