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प्रश्न :
प्रश्न. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत 'पूर्ण न्याय' सुनिश्चित करने की बदलती व्याख्याओं ने न्यायिक सीमाओं और शक्तियों के पृथक्करण की धारणा को प्रभावित किया है। इस संदर्भ में, इन परिवर्तनों के निहितार्थों और उनके प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
21 Jan, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- अनुच्छेद 142 के प्रावधान पर प्रकाश डालते हुए उत्तर दीजिये।
- न्यायिक सक्रियता में अनुच्छेद 142 की भूमिका पर प्रकाश डालिये।
- शक्तियों के पृथक्करण पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव बताइये।
- शक्तियों के पृथक्करण की चुनौतियों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
संविधान का अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” सुनिश्चित करने के लिये आदेश या डिक्री जारी करने का अधिकार देता है। इस प्रावधान ने न्यायालय को कानून और कार्यकारी कार्रवाई में अंतराल को समाप्त करने में सहायता की है, लेकिन इसकी सक्रियता ने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के बारे में चिंताएँ उत्पन्न की हैं, जो भारत के लोकतांत्रिक संरचना की आधारशिला है।
अनुच्छेद 142 और न्यायिक सक्रियता में इसकी भूमिका:
- अनुच्छेद 142 का दायरा: सर्वोच्च न्यायालय को उन मुद्दों पर विचार करने में सक्षम बनाता है जहाँ विधायी या कार्यकारी कार्रवाई अनुपस्थित या अप्रभावी है।
- यह न्यायपालिका को संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने तथा सार्वजनिक हित में हस्तक्षेप करके सामाजिक न्याय प्रदान करने की अनुमति देता है।
- विकसित व्याख्याओं को प्रतिबिंबित करने वाली न्यायिक मिसालें:
- विशाखा दिशानिर्देश (वर्ष 1997): विशिष्ट कानून के अभाव में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की समस्या का हल किया गया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः यौन उत्पीड़न निवारण अधिनियम, 2013 को अधिनियमित किया गया।
- बबीता पुनिया केस (वर्ष 2020): भारतीय सेना में महिलाओं के लिये स्थायी कमीशन अनिवार्य किया गया, जिससे लैंगिक समानता को बढ़ावा मिला।
- के.एस. पुट्टस्वामी केस (वर्ष 2017): निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को प्रदर्शित किया गया।
शक्तियों के पृथक्करण पर निहितार्थ:
- यद्यपि अनुच्छेद 142 ने महत्त्वपूर्ण मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप को सुगम बनाया है, फिर भी इसकी बदलती व्याख्याओं ने शक्तियों के पृथक्करण के संबंध में महत्त्वपूर्ण चिंताएँ उत्पन्न की हैं।
शासन पर सकारात्मक प्रभाव:
- विधायी और कार्यकारी निष्क्रियता से निपटना:
- कोयला ब्लॉक आवंटन मामला (वर्ष 2014): सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध कोयला ब्लॉक आवंटन को रद्द कर दिया, तथा जहाँ कार्यपालिका विफल रही, वहाँ जवाबदेही सुनिश्चित की।
- ताजमहल की सफाई: पर्यावरण और धरोहर संरक्षण संबंधी चिंताओं को दूर करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका पर प्रकाश डाला गया।
- संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण:
- अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा, प्रणालीगत भेदभाव को दूर करने और समावेशिता सुनिश्चित करके लोकतंत्र को सुदृढ़ किया गया।
- उदाहरण: विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (वर्ष 2020) ने बेटियों के सहदायिक अधिकारों के संबंध में परस्पर विरोधी व्याख्याओं को हल किया, जिससे लैंगिक न्याय सुनिश्चित हुआ।
- अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा, प्रणालीगत भेदभाव को दूर करने और समावेशिता सुनिश्चित करके लोकतंत्र को सुदृढ़ किया गया।
- सामाजिक न्याय और समानता: विधायिका या कार्यपालिका द्वारा उपेक्षित सामाजिक मुद्दों से निपटना।
- 1382 कारागारों में अमानवीय स्थिति के संबंध में न्यायालय ने अत्यधिक भीड़, विलंबित सुनवाई और विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक हिरासत में रखने जैसी चिंताओं पर विचार किया गया।
- इसने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वे CRPC की धारा 436A के तहत रिहाई के पात्र विचाराधीन कैदियों का शीघ्र अभिनिर्धारण करें और उन्हें रिहा करें।
- नवंबर 2024 में, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और एस.वी.एन. भट्टी ने पुनः बल देते हुए कहा कि सभी पात्र विचाराधीन कैदियों को रिहा करना जेलों में अमानवीय परिस्थितियों और भीड़भाड़ से निपटने के लिये महत्त्वपूर्ण है, उन्होंने आवाजहीन/असहाय कैदियों की बात सुनने के महत्त्व पर प्रकाश डाला।
- 1382 कारागारों में अमानवीय स्थिति के संबंध में न्यायालय ने अत्यधिक भीड़, विलंबित सुनवाई और विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक हिरासत में रखने जैसी चिंताओं पर विचार किया गया।
शक्तियों के पृथक्करण की चुनौतियाँ:
- न्यायिक अतिक्रमण: अनुच्छेद 142 के तहत सक्रियता प्रायः न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच की सीमाओं को धूमिल कर देती है।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (वर्ष 1994) मामले में, कर्नाटक के राजनीतिक संकट में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप ने शक्ति परीक्षण को सत्ता में किसी पार्टी के समर्थन के प्रमुख उपाय के रूप में स्थापित कर दिया, जिससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की सीमा समाप्त हो गई और न्यायिक अतिक्रमण की चिंताएँ बढ़ गईं।
- ‘पूर्ण न्याय’ की व्यक्तिपरक परिभाषा: ‘पूर्ण न्याय’ के लिये मानकीकृत कार्यढाँचे की अनुपस्थिति न्यायपालिका को व्यापक विवेक प्रदान करती है। इससे असंगति और संभावित दुरुपयोग हो सकता है।
- विवादास्पद मुद्दों (जैसे, आरक्षण या आर्थिक नीतियाँ) पर न्यायिक निर्णयों में एकरूपता का अभाव अप्रत्याशितता उत्पन्न कर सकता है।
- विधायी प्राधिकार पर अतिक्रमण: जब न्यायालय निर्देश या दिशानिर्देश जारी करते हैं (जैसे: विशाखा दिशानिर्देश), तो यह कानून बनाने के लिये विधायिका के प्राधिकार को कमज़ोर करता है।
- विधायिका और कार्यपालिका के विपरीत, अनुच्छेद 142 के अंतर्गत न्यायिक निर्णय आसानी से जाँच या परिवर्तन के अधीन नहीं होते हैं।
- संस्थागत संतुलन का क्षरण: नीतिगत मामलों में लंबे समय तक न्यायिक हस्तक्षेप से विधायिका और कार्यपालिका की संस्थागत क्षमताएँ कमज़ोर हो सकती हैं, जिससे गैर-न्यायिक मुद्दों को सुलझाने के लिये अदालतों पर निर्भरता बढ़ सकती है।
आगे की राह:
- ‘पूर्ण न्याय’ को परिभाषित करना: अनुच्छेद 142 के दायरे को मानकीकृत करने और व्यक्तिपरक व्याख्या को न्यूनतम करने के लिये स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित किया जाना चाहिये।
- संस्थागत संतुलन को बढ़ावा देना: न्यायपालिका को उन क्षेत्रों में आत्म-संयम बरतना चाहिये जो विशेष रूप से विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, जब तक कि कोई संवैधानिक या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो।
- जवाबदेही को दृढ़ करना: अनुच्छेद 142 के तहत न्यायिक निर्णयों के साथ विस्तृत तर्क और आवधिक समीक्षा तंत्र होना चाहिये ताकि जाँच और संतुलन सुनिश्चित किया जा सके।
- सहयोगात्मक शासन को बढ़ावा देना: विधायिका और कार्यपालिका को न्यायिक टिप्पणियों पर ध्यान देना चाहिये और अनुच्छेद 142 के हस्तक्षेपों पर निर्भरता कम करने के लिये नीतिगत अंतराल की पूर्ति करनी चाहिये।
निष्कर्ष
यद्यपि अनुच्छेद 142 के तहत न्यायिक सक्रियता ने लोकतंत्र और सामाजिक न्याय को दृढ़ किया है, लेकिन इसके अतिरेक से शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमज़ोर करने का जोखिम है। न्यायिक संयम और अंतर-संस्थागत सहयोग पर ज़ोर देने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण संवैधानिक संतुलन को बनाए रखने एवं लोकतांत्रिक शासन को मज़बूत करने के लिये आवश्यक है।
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