प्रश्न “प्रत्यायोजित विधान का उदय भारत में प्रशासनिक दक्षता के लिये आवश्यक तो है, लेकिन यह लोकतांत्रिक जवाबदेही के लिये कई चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।” इस कथन का उपयुक्त उदाहरणों के साथ विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रत्यायोजित विधान को परिभाषित करके परिचय दीजिये।
- प्रशासनिक दक्षता के लिये प्रत्यायोजित विधान का सोदाहरण महत्त्व बताइये।
- लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की चुनौतियों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- प्रत्यायोजित विधान में जवाबदेही बढ़ाने के उपाय सुझाइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
प्रत्यायोजित विधान का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें विधायिका अपनी विधि निर्माण की शक्तियों को कार्यपालिका को सौंपती है, जिससे उसे सक्षम विधिक संरचना के अंतर्गत नियम, विनियम और उपनियम बनाने की अनुमति मिलती है।
- यद्यपि जटिल एवं गतिशील शासन परिवेश में प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित करना आवश्यक है, लेकिन इससे लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के संदर्भ में भी चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
मुख्य भाग:
प्रशासनिक दक्षता के लिये प्रत्यायोजित विधान का महत्त्व:
- बदलती आवश्यकताओं के प्रति अनुकूलनशीलता: कार्यपालिका लंबी विधायी बहस के बिना शीघ्रता से नियम बना और संशोधित कर सकती है।
- उदाहरण: कोविड-19 विश्वमारी के दौरान, आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 ने कार्यपालिका को लॉकडाउन और स्वास्थ्य प्रोटोकॉल लागू करने के लिये नियम जारी करने का अधिकार दिया।
- तकनीकी विशेषज्ञता: विधायकों के पास जटिल नियमों का प्रारूप तैयार करने के लिये आवश्यक विशिष्ट ज्ञान का अभाव हो सकता है, विशेष रूप से पर्यावरण और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में।
- उदाहरण: पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, कार्यपालिका को वायु एवं जल गुणवत्ता मानकों पर तकनीकी विनियम जारी करने का अधिकार देता है।
- विधानमंडल के लिये समय की बचत: विधान सौंपे जाने से संसद को कार्यान्वयन के सूक्ष्म प्रबंधन के बजाय नीति-निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने की सुविधा मिलती है।
- उदाहरण: मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के अंतर्गत उत्सर्जन मानकों से संबंधित नियम सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय द्वारा बनाए जाते हैं।
लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की चुनौतियाँ:
- विधायी निगरानी का कमज़ोर होना: कार्यपालिका को महत्त्वपूर्ण कानून-निर्माण शक्तियों का अंतरण संसदीय नियंत्रण को कमज़ोर कर सकता है।
- अत्यधिक प्रत्यायोजन का जोखिम: व्यापक एवं अस्पष्ट प्रावधान कार्यपालिका द्वारा मनमाने नियम निर्माण को जन्म दे सकते हैं।
- उदाहरण: आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 सरकार को आवश्यक वस्तुओं की घोषणा करने में व्यापक विवेकाधिकार देता है, जो प्रायः विधायी जाँच को दरकिनार कर देता है।
- सीमित न्यायिक निगरानी: यद्यपि न्यायालय प्रत्यायोजित विधान की समीक्षा कर सकते हैं, किंतु न्यायिक हस्तक्षेप प्रायः प्रतिक्रियात्मक और समय लेने वाला होता है, जिसके कारण समय पर जाँच नहीं हो पाती।
- उदाहरण: वसंतलाल मगनभाई संजनवाला बनाम बॉम्बे राज्य (वर्ष 1961) मामले में - सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्यायोजित विधान को बरकरार रखा, लेकिन दोहराया कि आवश्यक विधायी कार्यों को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता।
- अपर्याप्त सार्वजनिक भागीदारी: प्रत्यायोजित विधान के माध्यम से बनाए गए नियमों और विनियमों में प्रायः पारदर्शिता और परामर्श का अभाव होता है, जिससे नागरिकों की भागीदारी कम हो जाती है।
- उदाहरण: सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अंतर्गत मध्यस्थों की देयताओं से संबंधित प्रारूप नियमों को कार्यान्वयन से पूर्व अपर्याप्त सार्वजनिक सहभागिता के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा।
- अध्यादेश शक्ति का दुरुपयोग: कुछ मामलों में, विधायी जाँच को दरकिनार करते हुए अध्यादेशों का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है तथा उनके प्रावधानों को प्रत्यायोजित विधान में परिवर्तित कर दिया जाता है।
- उदाहरण: वर्ष 2020 में अध्यादेशों के माध्यम से पेश किये गए कृषि कानूनों में परामर्श और जाँच के अभाव को लेकर व्यापक विरोध देखा गया।
प्रत्यायोजित विधान में उत्तरदायित्व बढ़ाने के उपाय:
- संसदीय निगरानी को दृढ करना: अधीनस्थ विधान समिति जैसी समितियों को नियमों और विनियमों की गहन जाँच सुनिश्चित करने के लिये सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- नियमों द्वारा मूल अधिनियम के नियम निर्माण प्राधिकार का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
- इसके अलावा, प्रारूपण की भाषा स्पष्ट, सटीक और अस्पष्टता से मुक्त होनी चाहिये ताकि गलत व्याख्या की संभावना समाप्त हो सके।
- सटीक सक्षम प्रावधान: सक्षम कानूनों में अत्यधिक प्रत्यायोजन को रोकने के लिये प्रत्यायोजित शक्तियों के दायरे और सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये।
- उदाहरण: खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 के अंतर्गत बनाए गए प्रत्येक नियम एवं विनियमन को अधिनियमित होने के पश्चात यथाशीघ्र संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- उन्नत न्यायिक समीक्षा तंत्र: न्यायालयों को मनमाने ढंग से सौंपे गए विधान से संबंधित चुनौतियों का समाधान करने के लिये सक्रिय तंत्र अपनाना चाहिये।
- सार्वजनिक परामर्श कार्यढाँचा: नियमों को अंतिम रूप देने से पहले अनिवार्य सार्वजनिक परामर्श शुरू करने से पारदर्शिता में सुधार हो सकता है।
निष्कर्ष:
भारत जैसे जटिल समाज में कुशल शासन के लिये प्रत्यायोजित कानून अपरिहार्य है। हालाँकि, लोकतांत्रिक जवाबदेही के साथ दक्षता को संतुलित करने के लिये, सटीक सक्षम विधि, सुदृढ़ निगरानी तंत्र और सार्वजनिक भागीदारी जैसे सख्त सुरक्षा उपायों को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिये। ऐसा करके, भारत 'नियंत्रण और संतुलन', जिसे मिनर्वा मिल्स मामले के बाद अधिक महत्त्व मिला, के सिद्धांत के अनुरूप हो सकता है।