- फ़िल्टर करें :
- भूगोल
- इतिहास
- संस्कृति
- भारतीय समाज
-
प्रश्न :
प्रश्न: मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन केवल एक धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति का प्रतीक था। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
06 Jan, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भक्ति आंदोलन के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करते हुए उत्तर दीजिये।
- भक्ति आंदोलन को सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के रूप में समर्थन देने वाले संवर्द्धनों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- भक्ति आंदोलन की सीमाओं को बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भक्ति आंदोलन, जो व्यक्तिगत रूप से कल्पित सर्वोच्च ईश्वर के प्रति भक्तिपूर्ण समर्पण पर आधारित था, मध्यकालीन भारत की सामाजिक-धार्मिक गतिशीलता के प्रति एक गहन समन्वय के रूप में विकसित हुआ।
- अलवार और नयनार जैसे संत-कवियों के नेतृत्व में यह आंदोलन मात्र धार्मिक सुधार की सीमाओं से आगे बढ़कर एक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति बन गया, जिसने समावेशिता, समतावाद और साझा आध्यात्मिक लोकाचार को बढ़ावा दिया।
मुख्य भाग:
सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के रूप में भक्ति आंदोलन:
- धार्मिक समानता और सामाजिक समावेशन: भक्ति आंदोलन ने मध्यकालीन समाज पर हावी कठोर जातिगत और लैंगिक पदानुक्रम को चुनौती दी।
- अंदल और नंदनार जैसे संतों ने तमिल में उपदेश दिया, जिससे भक्ति का प्रसार सीमांत समुदायों तक हुआ।
- कबीर (जो एक बुनकर थे) और रैदास (जो एक चर्मकार थे) जैसे संतों ने जातिगत भेदभाव का खंडन करते हुए निर्गुण भक्ति (निराकार ईश्वर के प्रति समर्पण) के माध्यम से सार्वभौमिक भाईचारे पर बल दिया।
- स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा: इस आंदोलन ने संस्कृत की जगह स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देकर धार्मिक अभिव्यक्ति को लोकतांत्रिक बनाया, क्योंकि उस समय संस्कृत पर अभिजात वर्ग का एकाधिकार था।
- तुलसीदास (अवधी) और गुरु नानक (पंजाबी) जैसे संतों ने अपनी शिक्षाओं का प्रसार क्षेत्रीय भाषाओं में किया।
- इस भाषाई समावेशिता ने अखिल भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सृजन किया तथा साझा पहचान की भावना को बढ़ावा दिया।
- कर्मकांड और रूढ़िवाद का प्रतिरोध: भक्ति आंदोलन ने ब्राह्मणवाद के कठोर कर्मकांडों और पुरोहितवाद के वर्चस्व का खंडन कर दिया।
- रामानुज के दर्शन में भक्ति को कर्मकांडीय प्रथाओं से श्रेष्ठ तथा सभी के लिये सुलभ बताया गया है।
- कबीर और गुरु नानक जैसे संतों ने मूर्ति पूजा एवं अंधविश्वास की निंदा की।
- कबीर की आलोचना: “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।” ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।” ( अर्थ: केवल धर्मग्रंथ पढ़ते-पढ़ते कोई ज्ञानी नहीं बन सकता है, असली ज्ञानी तो वह है जो प्रेम और सच्चाई के सार को समझ सके।)
- समतावादी सामाजिक-आर्थिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन ने कारीगरों, किसानों और व्यापारियों सहित सीमांत समूहों को आध्यात्मिक सांत्वना प्रदान की।
- सल्तनत के संरक्षण में शहरी कारीगर वर्ग के उदय ने आंदोलन की लोकप्रियता के लिये परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं।
- गुरु नानक का श्रम की गरिमा (किरत करो - ईमानदारी से जीविकोपार्जन करो) पर बल शहरी श्रमिक वर्गों में गूँज उठा।
- सामुदायिक रसोई (लंगर ) और सत्संग ने सभी जातियों में समानता और एकजुटता को बढ़ावा दिया।
- लिंग समावेशिता: इस आंदोलन ने महिलाओं को अपनी भक्ति व्यक्त करने और पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिये एक मंच प्रदान किया।
- दक्षिण भारत में प्रसिद्ध तमिल कवयित्री अंदल ने पुरुष-प्रधान धार्मिक क्षेत्र को चुनौती दी।
- उत्तर भारत में मीराबाई ने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति के माध्यम से राजसी और सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी।
- महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने आध्यात्मिक स्थानों में पितृसत्तात्मक बाधाओं को तोड़ने में मदद की।
- दक्षिण भारत में प्रसिद्ध तमिल कवयित्री अंदल ने पुरुष-प्रधान धार्मिक क्षेत्र को चुनौती दी।
- संस्कृतियों का समन्वय: भक्ति आंदोलन ने हिंदू और इस्लामी आध्यात्मिक परंपराओं के बीच के अंतर को कम कर दिया तथा समन्वयवाद को बढ़ावा दिया।
- निज़ामुद्दीन औलिया जैसे सूफी संतों ने भक्ति अधिनायकों को प्रभावित किया तथा प्रेम एवं भक्ति की साझा आध्यात्मिक शब्दावली का निर्माण किया।
- कबीर की शिक्षाओं में दोनों परंपराओं के तत्त्वों का मिश्रण था तथा बाह्य सिद्धांतों की अपेक्षा आंतरिक अनुभूति पर बल दिया गया था।
आंदोलन की सीमाएँ:
- जाति व्यवस्था को आंशिक चुनौती: जबकि भक्ति संतों ने धार्मिक समानता पर बल दिया, वे प्रायः जाति की सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के साथ सीधे टकराव से बचते थे।
- उदाहरण: रामानुज ने कहा कि चौथे समुदाय के लोग वेदों में वर्णित उपासना करने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि उनमें आवश्यक योग्यता का अभाव है।
- ब्राह्मणवादी विचारधारा में एकीकरण: समय के साथ, कई भक्ति परंपराएँ रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद में समाहित हो गईं, जिससे उनकी क्रांतिकारी क्षमता क्षीण हो गई।
निष्कर्ष:
भक्ति आंदोलन केवल धार्मिक सुधार नहीं था बल्कि एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति थी। जातिगत पदानुक्रम को चुनौती देकर, महिलाओं को सशक्त बनाकर, भाषाई समावेशिता को बढ़ावा देकर और समतावादी आदर्शों को बढ़ावा देकर, इसने मध्यकालीन भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को नया आयाम दिया।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print