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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न: एतिहासिक न्यायिक फैसलों और समितियों की सिफारिशों के संदर्भ में, भारत में बंद (हड़ताल) के कानूनी निहितार्थों पर चर्चा कीजिये। विरोध प्रदर्शन के अधिकार को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने और नागरिकों के अन्य अधिकारों की सुरक्षा के साथ संतुलित करने के लिये क्या उपाय सुझाए जा सकते हैं? चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    31 Dec, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • बंद (हड़ताल) के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी देकर उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
    • बंद (हड़ताल) से संबंधित विधायी और संवैधानिक प्रावधान बताइये।
    • बंद (हड़ताल) पर न्यायिक निर्णयों पर प्रकाश डालिये।
    • समिति की सिफारिशों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
    • बंद (हड़ताल) के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए तथा विरोध के अधिकार और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संतुलन बनाने के उपाय सुझाइये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    बंद (हड़ताल) विरोध के आक्रामक रूप हैं, जहाँ आयोजनकर्त्ता बंद (हड़ताल) को लागू करते हैं, जिससे सार्वजनिक जीवन, व्यवसाय और आवश्यक सेवाएँ बाधित होती हैं। जबकि भारतीय संविधान अनुच्छेद 19 के तहत विरोध से संबंधित कुछ अधिकारों की गारंटी देता है, बंद (हड़ताल) प्रायः नागरिकों के आवागमन, आजीविका और सार्वजनिक व्यवस्था की स्वतंत्रता का उल्लंघन करके इन अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।

    मुख्य भाग:

    बंद (हड़ताल) को नियंत्रित करने वाली विधिक संरचना

    • विधायी प्रावधान: लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम, 1984, सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने पर कारावास और ज़ुर्माने का प्रावधान करता है।
      • ऐसे मामलों में नागरिक या संगठन न्यायिक कार्रवाई के लिये जनहित याचिका दायर की जा सकती है।
    • संवैधानिक प्रावधान:
      • अनुच्छेद 19(1)(a): वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
        • विरोध प्रदर्शन को अभिव्यक्ति के एक रूप के रूप में मान्यता दी गई है।
        • हालाँकि अनुच्छेद 19(2) के तहत, यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के हित में प्रतिबंधों के अधीन है।
      • अनुच्छेद 19(1)(b): शांतिपूर्वक एकत्रित होने का अधिकार
        • शांतिपूर्ण सभाओं को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है, लेकिन उन्हें सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित नहीं करना चाहिये या दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये।
      • अनुच्छेद 19(1)(c): संघ बनाने का अधिकार
        • यद्यपि यह अधिकार नागरिकों को यूनियन बनाने की अनुमति देता है, परंतु न्यायपालिका ने स्पष्ट किया है कि इसमें हड़ताल करने या बंद (हड़ताल) के आह्वान का अधिकार शामिल नहीं है।

    बंद (हड़ताल) पर न्यायिक निर्णय:

    • कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य (वर्ष 1962): स्पष्ट किया गया कि संघ बनाने के अधिकार में स्वाभाविक रूप से हड़ताल करने या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने का अधिकार शामिल नहीं है।
    • भारत कुमार के. पालीचा बनाम केरल राज्य (वर्ष 1997): बंद (हड़ताल) को असंवैधानिक घोषित किया गया, जिसमें बंद (हड़ताल) की बलपूर्वक प्रकृति पर बल दिया गया तथा आवागमन की स्वतंत्रता और व्यापार के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया।
    • टी.के. रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार (वर्ष 2003): स्पष्ट रूप से कहा गया कि हड़ताल करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, विशेष रूप से सरकारी कर्मचारियों के लिये।
    • जेम्स मार्टिन बनाम केरल राज्य (वर्ष 2004): न्यायालय ने माना कि बंद (हड़ताल) के आयोजकों को सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुए नुकसान के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
      • विरोध प्रदर्शनों के दौरान व्यवस्था बनाए रखने की राज्य की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दिया गया।
    • सार्वजनिक एवं निजी संपत्तियों का विनाश बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (वर्ष 2009): क्षति के लिये आयोजकों पर कठोर दायित्व लगाने की सिफारिश की गई तथा विरोध प्रदर्शनों पर बेहतर नियंत्रण के लिये विधायी उपायों का प्रस्ताव रखा गया।

    समिति की अनुशंसाएँ:

    • न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस और फली एस. नरीमन समिति: अपराधियों की पहचान के लिये विरोध प्रदर्शनों की वीडियोग्राफी का प्रस्ताव।
    • क्षति के लिये आयोजकों पर कठोर दायित्व लागू करने का समर्थन किया गया।

    बंद (हड़ताल) का प्रभाव:

    • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नागरिकों की आवागमन की स्वतंत्रता और आजीविका के अधिकार का उल्लंघन करता है।
      • यह आवश्यक सेवाओं तक पहुँच के अधिकार को प्रभावित करता है, जो अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।
    • आर्थिक परिणाम: व्यवसायों, दैनिक मज़दूरी श्रमिकों और समग्र आर्थिक उत्पादकता को नुकसान।
    • व्यापार एवं उद्योग में व्यवधान, विशेषकर शहरी केंद्रों में।
    • सार्वजनिक व्यवस्था को ख़तरा: बंद (हड़ताल) के कारण प्रायः हिंसा, संपत्ति को नुकसान और सामाजिक अशांति फैलती है। इससे कानून प्रवर्तन के लिये प्रशासनिक चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
    • लोकतांत्रिक सिद्धांतों का क्षरण: ज़बरदस्ती और धमकी से विरोध की स्वैच्छिक प्रकृति कमज़ोर होती है तथा लोकतांत्रिक मूल्य कमज़ोर होते हैं।

    विरोध प्रदर्शन के अधिकार और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संतुलन बनाने के सुझाव:

    • विधिक संरचना को मज़बूत करना: विरोध प्रदर्शनों के लिये अनुमेय सीमाओं को परिभाषित करने वाला व्यापक कानून बनाए जाने चाहिये।
      • बलपूर्वक या हिंसक विरोध प्रदर्शन के लिये कठोर दंड लागू किये जाने चाहिये।
    • शांतिपूर्ण विरोध को प्रोत्साहित करना: व्यवधान को न्यूनतम करने के लिये निर्दिष्ट विरोध क्षेत्रों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
      • विरोध प्रदर्शनों की पूर्व सूचना और अनुमोदन के लिये तंत्र सुनिश्चित किये जाने चाहिये।
    • जवाबदेही और मुआवज़ा: बंद (हड़ताल) के दौरान होने वाले नुकसान के लिये आयोजकों को उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये। सार्वजनिक और निजी नुकसान को दूर करने के लिये मुआवज़ा निधि की स्थापना की जानी चाहिये।
    • जन जागरूकता और शिक्षा: सार्वजनिक जीवन पर बंद (हड़ताल) के प्रभाव को उजागर करने के लिये अभियान चलाए जाने चाहिये। विरोध के गैर-विघटनकारी रूपों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जो दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हों।
    • संवाद और मध्यस्थता: शिकायतों को रचनात्मक ढंग से सुलझाने के लिये प्राधिकारियों और प्रदर्शनकारियों के बीच संवाद हेतु संस्थागत मंच तैयार किये जाने चाहिये।

    निष्कर्ष:

    बंद (हड़ताल), विरोध करने के लोकतांत्रिक अधिकार में निहित होते हुए भी, प्रायः संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करते हैं और आर्थिक एवं सामाजिक नुकसान पहुँचाते हैं। न्यायिक हस्तक्षेप और विधायी उपायों ने इन प्रभावों को कम करने का प्रयास किया है। जवाबदेही सुनिश्चित करने, सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा करने और शांतिपूर्ण विरोध को बढ़ावा देने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण व्यापक आबादी के अधिकारों एवं कल्याण के साथ असहमति के अधिकार को सुसंगत बना सकता है।

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