प्रश्न: राज्यसभा के सभापति अपनी संवैधानिक शक्तियों का उपयोग करके संघीय संतुलन बनाए रखने में कैसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं? चर्चा कीजिये। ( 150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- अध्यक्ष के पद की संवैधानिकता पर प्रकाश डालते हुए उत्तर दीजिये।
- संघीय संतुलन बनाए रखने में अध्यक्ष की भूमिका पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- संघीय संतुलन बनाए रखने में चुनौतियों को बताइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
संविधान के अनुच्छेद 89 में संसद के संघीय सदन की अध्यक्षता करने वाले सभापति (भारत के उपराष्ट्रपति) के लिये प्रावधान है। राज्य सभा का डिज़ाइन संविधान में परिकल्पित संघवाद के संरक्षण को सुनिश्चित करता है।
अध्यक्ष राज्य के हितों की रक्षा करने तथा अपनी संवैधानिक शक्तियों के माध्यम से संघ और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
संघीय संतुलन बनाए रखने में अध्यक्ष की भूमिका
- राज्य-केंद्रित कानूनों पर विधायी निगरानी: प्रमुख संघीय मुद्दों पर विचार-विमर्श का मार्गदर्शन करता है, जैसे:
- अनुच्छेद 249: जब संसद राष्ट्रीय हित में राज्य के मामलों पर कानून बनाती है।
- अनुच्छेद 312: राज्य शासन को प्रभावित करने वाली अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन।
- विवादास्पद निर्णयों में निर्णायक मत: अनुच्छेद 100 में बराबर मत की स्थिति में अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया है, जिससे निष्पक्ष और संतुलित निर्णय सुनिश्चित हो सके।
- राज्य सभा के संघीय चरित्र को संरक्षित करना: राज्य सभा के कामकाज के संरक्षक के रूप में, सभापति यह सुनिश्चित करता है कि बहस में संघवाद के संवैधानिक सिद्धांत को बरकरार रखा जाए।
- राज्यों को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दों (जैसे GST) पर चर्चा को प्रोत्साहित करता है।
- तटस्थता और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना: बहस में निष्पक्षता बनाए रखना, छोटे और बड़े दोनों राज्यों के हितों का न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।
- इससे विपक्ष और राज्य-विशिष्ट चिंताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने का अवसर मिलता है तथा केंद्र सरकार के कथन को केंद्रीय भूमिका में आने से रोका जा सकता है।
- केंद्रीकरण के विरुद्ध शिकायतों के समाधान हेतु मंच: यह राज्यों को केंद्रीय अतिक्रमणों, जैसे अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करने के लिये एक मंच प्रदान करता है।
- इससे केंद्र प्रायोजित योजनाओं जैसी नीतियों की जाँच संभव हो सकेगी तथा राज्यों की वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता का सम्मान सुनिश्चित होगा।
- संकट प्रबंधन और संघर्ष समाधान: विधायी गतिरोध के दौरान संतुलनकारी भूमिका निभाता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि राज्य के दृष्टिकोण पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
- उदहारण के लिये, विवादास्पद मामलों में आम सहमति बनाने को बढ़ावा देना, सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना।
संघीय संतुलन बनाए रखने में चुनौतियाँ:
- सत्ता का केंद्रीकरण: कराधान, कानून और व्यवस्था तथा लोक प्रशासन जैसे क्षेत्रों में सत्ता का बढ़ता केंद्रीकरण राज्यों की स्वायत्तता को कमज़ोर कर सकता है, जिससे अध्यक्ष के लिये संघीय संरचना की प्रभावी रूप से रक्षा करना कठिन हो जाएगा।
- राजनीतिक दबाव और संघ सरकार का प्रभुत्व: यद्यपि अध्यक्ष को संवैधानिक रूप से निष्पक्ष रहने का आदेश दिया गया है, फिर भी उसे प्रायः राजनीतिक दबावों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर तब जब किसी एक पार्टी को बहुमत प्राप्त हो।
- अध्यक्ष की राजनीतिक संबद्धता उनकी तटस्थता को प्रभावित कर सकती है, विशेष रूप से उन संवेदनशील मामलों में जिनका संघीय निहितार्थ होता है।
- संघीय मुद्दों में संरचनात्मक सुधार: जटिल संघीय मुद्दे, जैसे अंतर-राज्यीय जल विवाद, संसाधन-साझाकरण और क्षेत्रीय असमानताएँ, प्रक्रियात्मक निगरानी से अधिक की मांग करते हैं, वे संरचनात्मक सुधारों की मांग करते हैं जिनको अकेले अध्यक्ष प्रभावित नहीं कर सकते हैं।
- राज्य हितों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: संतुलित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में अध्यक्ष की भूमिका के बावजूद, छोटे राज्यों या विशिष्ट क्षेत्रीय चिंताओं वाले राज्यों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व अभी भी एक चुनौती है।
निष्कर्ष:
राज्य सभा के सभापति निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके और राज्य के हितों की रक्षा करके भारत के संघीय संतुलन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि उनकी संवैधानिक शक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप की अनुमति देती हैं, केंद्रीकरण में वृद्धि जैसी चुनौतियाँ इस भूमिका के प्रभावी कामकाज को जटिल बनाती हैं। संघवाद को सुदृढ़ करने के लिये, विधायी और संरचनात्मक सुधारों को शामिल करते हुए अधिक समन्वित दृष्टिकोण आवश्यक है।