प्रश्न: भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत लागू किये गए चुनावी सुधारों की समीक्षा कीजिये। इन सुधारों ने राजनीतिक भागीदारी को कैसे बढ़ाया और साथ ही औपनिवेशिक शासन के राजनीतिक प्रतिबंधों को किस प्रकार बनाए रखा। विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत सरकार के वर्ष 1935 के कानून के बारे में जानकारी देकर उत्तर दीजिये।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत हुए चुनावी सुधार बताइये।
- इस बात पर प्रकाश डालिये कि इसने राजनीतिक भागीदारी को किस प्रकार बढ़ाया।
- इसकी सीमाओं का गहन अध्ययन प्रस्तुत कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
भारत सरकार अधिनियम, 1935 भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसकी प्रमुख विशेषताओं में चुनावी सुधार शामिल थे, जिनका उद्देश्य राजनीतिक भागीदारी का विस्तार करना था, लेकिन इसमें कई औपनिवेशिक प्रतिबंध भी शामिल थे।
- इन सुधारों ने द्विसदनीय विधायिका, सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और विभिन्न समुदायों और हितों को समायोजित करने के लिये आरक्षित सीटों की अवधारणाएँ पेश कीं।
मुख्य भाग:
भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत चुनाव सुधार:
- पृथक निर्वाचिका मंडल की शुरुआत: इस अधिनियम ने मुस्लिम, सिख और एंग्लो-इंडियन जैसे धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका मंडल के प्रावधान को जारी रखा तथा उसका विस्तार किया।
- इसका उद्देश्य प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था लेकिन इससे सांप्रदायिक विभाजन और भी बढ़ता गया।
- आरक्षित सीटें और प्राथमिकता: विधानमंडलों में अल्पसंख्यकों और विशिष्ट समुदायों के लिये सीटें आरक्षित की गईं।
- अतिरिक्त प्राथमिकता के सिद्धांत ने यह सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यकों को उन प्रांतों में अधिक प्रतिनिधित्व मिले जहाँ वे बहुसंख्यक नहीं थे।
- द्विसदनीय केंद्रीय विधानमंडल: केंद्रीय विधानमंडल द्विसदनीय हो गया, जिसमें संघीय विधानसभा (निचला सदन) और राज्य परिषद (उच्च सदन) शामिल थे।
- सदस्य आंशिक रूप से निर्वाचित और आंशिक रूप से मनोनीत होते थे, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रभाव सीमित हो जाता था।
- प्रांतीय चुनाव और स्वायत्तता: बड़े निर्वाचन क्षेत्रों के साथ प्रांतीय विधायिकाओं की स्थापना की गई और चुनाव आयोजित किये गए।
राजनीतिक भागीदारी का विस्तार:
भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने निम्नलिखित तरीकों से राजनीतिक भागीदारी को महत्त्वपूर्ण रूप से विस्तारित किया:
- मताधिकार का विस्तार: संपत्ति योग्यता, आय और शिक्षा के आधार पर भारतीय जनसंख्या के लगभग 10-12% को शामिल करने के लिये निर्वाचन क्षेत्र का विस्तार किया गया।
- यद्यपि यह पूर्ववर्ती सीमित मताधिकार से एक सुधार था, फिर भी आबादी के एक बड़े हिस्से, विशेष रूप से गरीब और अशिक्षित लोगों को इससे बाहर रखा गया था।
- प्रांतीय स्वायत्तता: प्रांतीय स्तर पर भारतीय नेता अब स्वास्थ्य, शिक्षा और स्थानीय सरकार जैसे विषयों पर कानून बना सकते थे।
- इससे भारतीय राजनेताओं को शासन में शामिल होने के लिये प्रशिक्षण का अवसर मिला।
- महिला प्रतिनिधित्व: पहली बार महिलाओं के लिये पृथक निर्वाचिका पेश की गई, जिससे निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हुई।
- हालाँकि महिलाओं के लिये मताधिकार एक छोटे से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तक ही सीमित रहा।
- राजनीतिक जागरूकता और पार्टी विकास: अधिनियम के तहत आयोजित चुनावों ने भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों को जनता को संगठित करने तथा राजनीतिक चेतना बढ़ाने के लिये एक मंच प्रदान किया।
भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने व्यापक निर्वाचन क्षेत्रों, सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व और प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना के माध्यम से राजनीतिक भागीदारी का विस्तार किया, इसे औपनिवेशिक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिये सावधानीपूर्वक तैयार किया गया था:
- अंग्रेज़ों ने भारतीय समाज को विभाजित करने के लिये सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का रणनीतिक रूप से प्रयोग किया।
- गवर्नरों और गवर्नर-जनरल की वीटो शक्ति सहित शक्तियों से यह सुनिश्चित किया गया कि निर्वाचित सरकारें ब्रिटिश हितों के अधीन रहें और सुधारों के लोकतांत्रिक उद्देश्यों को कमज़ोर किया।
- मताधिकार की सीमित प्रकृति ने यह सुनिश्चित किया कि राजनीतिक भागीदारी केवल अभिजात वर्ग तक ही सीमित रहे, जिससे लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया धीमी हो गई।
निष्कर्ष:
भारत सरकार अधिनियम, 1935 में चुनावी सुधार के दो पक्ष थे। जबकि उन्होंने राजनीतिक भागीदारी एवं प्रांतीय शासन का विस्तार किया, उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन को भी बढ़ाया, औपनिवेशिक नियंत्रण बनाए रखा और वास्तविक लोकतंत्र को सीमित किया। इन कमियों के बावजूद, अधिनियम ने भारत के भविष्य के संवैधानिक विकास के लिये मंच तैयार किया जो पूर्ण स्वतंत्रता के लिये आधार सिद्ध हुआ।