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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न: सामाजिक असमानताओं को दूर करने और सामाजिक सद्भाव बनाए रखने में संवैधानिक तंत्र की भूमिका का आकलन कीजिये तथा इसकी प्रभावशीलता एवं सीमाओं का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    09 Dec, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाज

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • सामाजिक असमानताओं और प्रमुख संवैधानिक सुरक्षा उपायों पर प्रकाश डालते हुए उत्तर दीजिये। 
    • सामाजिक असमानताओं को दूर करने और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने वाले संवैधानिक तंत्रों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये। 
    • संवैधानिक तंत्र की प्रभावशीलता और इसकी सीमाओं पर प्रकाश डालिये।
    • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये। 

    परिचय: 

    भारत में सामाजिक असमानताएँ ऐतिहासिक जातिगत विभाजन, लैंगिक पदानुक्रम और आर्थिक विषमताओं में गहराई से निहित हैं। संविधान इन असमानताओं को दूर करने और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये एक सुदृढ़ फ्रेमवर्क प्रदान करता है। मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP) जैसे प्रावधानों का उद्देश्य एक समावेशी समाज का निर्माण करना है।

    मुख्य भाग:

    सामाजिक असमानताओं को दूर करने और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक तंत्र: 

    • मौलिक अधिकार (भाग III):
      • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान संरक्षण सुनिश्चित करता है।
      • अनुच्छेद 15: धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।
        • उदाहरण: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, जैसे नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (वर्ष 2018) मामला जिसने LGBTQ+ अधिकारों को वैध बताते हुए धारा 377 को अपराधमुक्त कर दिया।
      • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता को समाप्त करता है, सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देता है।
        • उदाहरण: कर्नाटक राज्य बनाम अप्पा बालू इंगले मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पृश्यता प्रथाओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई को बरकरार रखा।
    • राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (भाग IV):
      • अनुच्छेद 38(2): राज्य को आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को न्यूनतम करने का निर्देश देता है।
      • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देता है।
        • उदाहरण: 93वें संविधान संशोधन (वर्ष 2005) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नीतियाँ।
    • अल्पसंख्यकों और जनजातियों के लिये विशेष प्रावधान:
      • अनुच्छेद 29 और 30: अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा करना।
      • अनुच्छेद 244: अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन का प्रावधान करता है।
        • उदाहरण: जनजातीय क्षेत्रों में स्वशासन के लिये PESA अधिनियम,1996 
    • स्वतंत्र संस्थाएँ:
      • राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 338): अनुसूचित जाति कल्याण की जाँच और निगरानी करता है।
      • राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग: अल्पसंख्यक अधिकारों और सद्भाव को बढ़ावा देता है।

    संवैधानिक तंत्र की प्रभावशीलता

    • सीमांत समुदायों का सशक्तीकरण:
      • सकारात्मक कार्यवाहियाँ: आरक्षण नीतियों से शिक्षा और रोज़गार में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों व महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।
      • राजनीतिक प्रतिनिधित्व: अनुच्छेद 330 (संसद में आरक्षण) जैसे प्रावधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हैं।
        • उदाहरण: लोकसभा में लगभग 84 सीटें अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित हैं, जिससे उन्हें विधायी सशक्तीकरण प्राप्त होता है।
    • सामाजिक-आर्थिक असमानताओं में कमी:
      • उदाहरण: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) ने वित्त वर्ष 2022-23 में 80 मिलियन लोगों को रोज़गार प्रदान किया, जिसमें SC/ST समुदायों के महत्त्वपूर्ण लाभार्थी शामिल थे।
      • सत्र 2005-06 और सत्र 2019-21 के बीच लगभग 415 मिलियन भारतीय गरीबी से बाहर निकले।
      • लक्षित कल्याण कार्यक्रम: राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों से प्राप्त नीतियों से गरीबी उन्मूलन और आर्थिक उत्थान हुआ है।
    • सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना:
      • धर्मनिरपेक्ष फ्रेमवर्क: अनुच्छेद 25-28 जैसी संवैधानिक गारंटियाँ धर्म की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व सुनिश्चित करती हैं।
        • उदाहरण: सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को बरकरार रखा।
      • सांस्कृतिक और शैक्षिक सुरक्षा: अनुच्छेद 29 और 30 जैसे अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति को संरक्षित करने एवं शैक्षिक संस्थान संचालन का अधिकार देते हैं।
        • उदाहरण: अनुच्छेद 30 के तहत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्वायत्तता अल्पसंख्यक अधिकारों की संवैधानिक मान्यता का एक उदाहरण है।

    संवैधानिक तंत्र की सीमाएँ 

    • कार्यान्वयन चुनौतियाँ: प्रगतिशील कानूनों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
      • मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार प्रतिषेध अधिनियम, 2013 के तहत प्रतिबंध के बावजूद मैनुअल स्कैवेंजिंग जारी है।
    • नौकरशाही विलंब: कल्याणकारी योजनाओं में प्रायः प्रशासनिक अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के कारण विलंब होता है।
      • उदाहरण: कुछ राज्यों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिये छात्रवृत्ति का धीमा वितरण।
    • सामाजिक-आर्थिक अंतराल: यद्यपि संवैधानिक प्रावधान समानता को बढ़ावा देते हैं, फिर भी शिक्षा, स्वास्थ्य और आय में भारी असमानताएँ बनी हुई हैं।
      • सीमांत समुदायों में सीमित डिजिटल साक्षरता और बुनियादी अवसंरचना के कारण असमानताएँ बढ़ रही हैं।
    • राजनीतिक और सामाजिक दुरुपयोग: OBC आरक्षण में "क्रीमी लेयर" के कथित दुरुपयोग से उन लाभों में कमी आती है, जो सबसे अधिक ज़रूरतमंदों को मिलने चाहिये।
      • जातिगत और सांप्रदायिक पहचानों का कभी-कभी राजनीतिकरण कर दिया जाता है, जिससे संवैधानिक सद्भाव के उद्देश्य कमज़ोर हो जाते हैं।
    • उभरते समूहों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में मान्यता के बावजूद, LGBTQ+ समुदाय के पास विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार के अधिकारों के लिये स्पष्ट संवैधानिक सुरक्षा का अभाव है।
    • सीमित जागरूकता और अभिगम: कई सीमांत समूहों में अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूकता का अभाव है, जिससे कानूनी या प्रशासनिक उपाय प्राप्त करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
      • कानूनी साक्षरता और प्रशासनिक अभिगम के अभाव के कारण दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जनजातीय समुदाय भूमि अधिकार संरक्षण से वंचित हैं।

    आगे की राह

    • कार्यान्वयन को सुदृढ़ करना: अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिये कल्याणकारी योजनाओं में लीकेज को कम करने के लिये प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिये।
    • जागरूकता अभियान: शासन में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिये सीमांत समूहों के बीच अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिये।
    • न्यायिक और प्रशासनिक सुधार: जातिगत हिंसा और लैंगिक अपराधों के मामलों के लिये फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की जानी चाहिये।
      • संवेदनशील सामाजिक मुद्दों से निपटने के लिये स्थानीय प्रशासकों को बेहतर प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये। 
    • ज़मीनी स्तर की संस्थाओं को सशक्त बनाना: स्थानीय निर्णय प्रक्रिया में विविध आवश्यकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिये पंचायती राज और जनजातीय परिषदों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है।
    • अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय संवाद को बढ़ावा देना: आपसी समझ और सम्मान बनाने के लिये ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ जैसी पहल को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। 

    निष्कर्ष

    भारत में संवैधानिक तंत्र सीमांत वर्गों को सशक्त बनाने और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने में सहायक रहे हैं, लेकिन क्रियान्वयन, जागरूकता तथा सामाजिक-आर्थिक असमानताओं में अंतराल के कारण उनकी पूरी क्षमता का अनुभव होना अब भी शेष है। इन अंतरालों को कम करने के लिये प्रवर्तन को सुदृढ़ करने, समावेशिता को बढ़ाने और असमानताओं को कम करने के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

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