प्रश्न. भारत में राज्य विधानमंडल विचार-विमर्श करने वाले निकाय के बजाय केवल अनुमोदन कक्ष बनते जा रहे हैं। चर्चा कीजिये। (150 शब्द )
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- राज्य विधानमंडल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- भारत में राज्य विधानमंडलों के कार्यों पर प्रकाश डालिये।
- राज्य विधानमंडलों को अनुसमर्थन कक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हुए साक्ष्य दीजिये।
- गिरावट में योगदान देने वाले कारकों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- राज्य विधानमंडलों को पुनर्जीवित करने के उपाय सुझाइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भारत में राज्य विधानमंडल भारतीय संविधान के भाग VI के तहत विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों द्वारा शासित होता है, जिसका कार्य कानून बनाना, सार्वजनिक नीतियों पर वार्ता करना और कार्यपालिका को जवाबदेह बनाना है।
- राज्य विधानमंडल, जो कभी गहन बहस और नीति-निर्माण के लिये जीवंत मंच हुआ करते थे, अब अपना विचार-विमर्शात्मक चरित्र खोते जा रहे हैं साथ ही प्रायः कार्यपालिका के विस्तार मात्र के रूप में कार्य कर रहे हैं तथा न्यूनतम जाँच के साथ निर्णय पर अपनी मुहर लगा रहे हैं।
मुख्य भाग:
राज्य विधानमंडलों द्वारा जीवंत मंच के रूप में कार्यान्वयन:
ऐतिहासिक रूप से, भारत में राज्य विधानमंडलों ने बहस, नीति-निर्माण और कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिये जीवंत मंच के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- स्वतंत्रता के प्रारंभिक दशकों में कठोर बहस: 1950 और 1960 के दशक के दौरान, राज्य विधानसभाएँ भूमि सुधार, शिक्षा नीतियों तथा औद्योगिक विकास जैसे प्रमुख मुद्दों पर गंभीर बहस के लिये जानी जाती थीं।
- उदाहरण के लिये, पश्चिम बंगाल विधानसभा में ऑपरेशन बर्गा कार्यक्रम पर लंबी बहस हुई, जिसमें किसानों और भूस्वामियों पर पड़ने वाले प्रभावों पर विस्तृत चर्चा की गई।
- सहयोगात्मक विधि निर्माण: राज्य विधानसभाओं ने परिवर्तनकारी कानूनों के निर्माण में सक्रिय रूप से योगदान दिया, जैसे कि केरल का भूमि सुधार अधिनियम (1963), जिस पर विधायकों के विस्तृत सुझावों के साथ गंभीर बहस हुई, जिसके परिणामस्वरूप प्रभावी कार्यान्वयन हुआ।
राज्य विधानमंडलों द्वारा अनुसमर्थन कक्ष के रूप में साक्ष्य:
- बैठक के दिनों में कमी: हाल के वर्षों में, राज्य विधानसभाओं की बैठकें सालाना कम दिनों के लिये होती रही हैं। वर्ष 2016 से 2022 तक औसत बैठक के दिनों की संख्या में लगातार कमी आई है।
- वर्ष 2022 में 28 राज्य विधानसभाओं की बैठक औसतन 21 दिनों तक रहीं।
- विधेयकों का जल्दबाज़ी में पारित होना: कई राज्य विधानसभाएँ बिना पर्याप्त बहस के विधेयक पारित कर देती हैं। उदाहरण के लिये:
- वर्ष 2022 में, बिहार, गुजरात, पंजाब और पश्चिम बंगाल सहित 9 राज्यों ने पेश होने के एक दिन के भीतर सभी विधेयक पारित कर दिये।
- कमज़ोर विधायी समितियाँ: संसद के विपरीत, राज्य विधानमंडल गहन चर्चा के लिये शायद ही कभी समितियों पर निर्भर रहते हैं।
- इससे कानूनों की विस्तृत जाँच प्रभावित होती है, जैसा कि कर्नाटक विधानसभा में देखा गया, जहाँ 5% से भी कम विधेयक समितियों को भेजे गए।
- अध्यादेशों का अत्यधिक उपयोग: अध्यादेश विधायी बहस को दरकिनार कर देते हैं। केरल में, सत्र समाप्त होने के दो सप्ताह के भीतर 51 अध्यादेश जारी किये गए और सत्र शुरू होने से 20 दिन पूर्व 44 अध्यादेश जारी किये गए, जो विधायी प्रक्रियाओं पर कार्यपालिका के प्रभुत्व को उजागर करता है।
- विधायकों की कम भागीदारी: राज्य विधायक प्रायः विधायी चर्चाओं में भाग लेने के बजाय स्थानीय निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
- व्यवधान, स्थगन और कोरम (गणपूर्ति) की कमी के उदाहरण विधायी भागीदारी में कमी को दर्शाते हैं।
राज्य विधानमंडलों को पुनर्जीवित करने के उपाय:
- अनिवार्य न्यूनतम बैठक दिवस: विभिन्न समितियों द्वारा सुझाए गए अनुसार, राज्य विधानमंडलों की वार्षिक बैठक कम-से-कम 50-70 दिनों के लिये सुनिश्चित करने के लिये संवैधानिक प्रावधान लागू किये जाने की आवश्यकता है।
- समिति तंत्र को सुदृढ़ बनाना: विधेयकों और नीतियों की विस्तृत जाँच के लिये विषय-विशिष्ट समितियों का संस्थागत गठन किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये, संसद की लोक लेखा समिति का अनुकरण करना।
- विधायकों के लिये क्षमता निर्माण: विधायकों को प्रशिक्षण और अनुसंधान सुविधाओं तक पहुँच प्रदान करना, जिससे सूचित वार्ता एवं नीति-निर्माण में सहायता मिल सके।
- जन भागीदारी को प्रोत्साहित करना: सार्वजनिक परामर्श और विधान-पूर्व जाँच के माध्यम से विधायी प्रक्रिया में नागरिक सहभागिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
भारत के संघीय लोकतंत्र की आधारशिला के रूप में राज्य विधानमंडलों को अपनी वर्तमान निष्क्रियता की स्थिति से बाहर निकलकर जीवंत विचार-विमर्श मंचों के रूप में अपनी भूमिका को पुनः प्राप्त करना चाहिये। संस्थागत तंत्र को सुदृढ़ करना, विधायी जवाबदेही सुनिश्चित करना और सूचित वार्ता की संस्कृति को बढ़ावा देना विचार-विमर्श के कम होते कामकाज की प्रवृत्ति में सुधार के लिये आवश्यक हैं।