प्रश्न: "लोक अदालतों का विकास भारत में न्यायिक प्रणाली के वैकल्पिक विवाद समाधान के सफल अनुकूलन को कैसे प्रतिबिंबित करता है?" चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
दृष्टिकोण:
- जनता के न्यायालय के रूप में लोक अदालत के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- ज्ञात कीजिये कि समय के साथ लोक अदालतें किस प्रकार विकसित हुई हैं?
- ए.डी.आर. तंत्र के सफल अनुकूलन के तौर पर लोक अदालतों के संदर्भ में तर्क दीजिये।
- इससे संबंधित चुनौतियों पर गहन विचार करते हुए आगे की राह बताइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
लोक अदालत या ‘पीपुल्स कोर्ट’ भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान का एक अभिनव रूप है, जिसे त्वरित, लागत प्रभावी और सौहार्दपूर्ण न्याय प्रदान करने के लिये स्थापित किया गया है। विवाद निपटान के वैकल्पिक तरीके के रूप में 'लोक अदालत' के प्रयोग को भारत में व्यवहार्य, आर्थिक, कुशल और अनौपचारिक के रूप में स्वीकार किया गया है।
मुख्य भाग:
लोक अदालतों का विकास:
- स्वतंत्रता-पूर्व जड़ें: ग्राम-आधारित न्यायाधिकरण न्याय पंचायतों से प्रेरित होकर, समुदाय के वरिष्ठ जनों/बुज़ुर्गों पर भरोसा करते हुए अनौपचारिक रूप से विवादों का समाधान किया करते थे।
- इन प्रणालियों में भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप सामंजस्य तथा सद्भाव पर ज़ोर दिया गया।
- स्वतंत्रता उपरांत गिरावट और पुनरुद्धार:
- स्वतंत्रता के बाद न्याय पंचायतों को औपचारिक रूप दिया गया, लेकिन प्रक्रियागत जटिलताओं और सीमित शक्तियों के कारण वे असफल रहीं।
- अनौपचारिक न्याय की आवश्यकता पुनः महसूस हुई, विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश एन.एच. भगवती की वर्ष 1976 की रिपोर्ट के बाद, जिसमें सामाजिक न्याय के तंत्र के रूप में निशुल्क कानूनी सहायता और जनहित याचिका पर बल दिया गया।
- लोक अदालतों का आधुनिक युग:
- 1970 के दशक के अंत में गुजरात में पहली बार औपचारिक लोक अदालतों का आयोजन किया गया। उनकी सफलता से उत्साहित होकर अन्य राज्यों ने भी इस मॉडल को अपनाया।
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 ने लोक अदालतों को वैधानिक मान्यता प्रदान की, जिससे वे लंबित और मुकदमे-पूर्व मामलों की सुनवाई कर सकें तथा बाध्यकारी, गैर-अपीलीय निर्णय जारी कर सकें।
- सिविल प्रक्रिया संहिता में वर्ष 1999 के संशोधन द्वारा धारा 89 की शुरुआत की गई, जिससे अदालतों को लोक अदालतों सहित ADR के लिये मामलों को संदर्भित करने का अधिकार मिल गया।
- वर्ष 2002 के संशोधन द्वारा सार्वजनिक उपयोगिता विवादों के लिये स्थायी लोक अदालतों की स्थापना की गई, जिससे उन्हें आपसी समझौते के बिना भी मामलों का निर्णय करने की शक्ति प्रदान की गई।
ए.डी.आर. तंत्र के सफल अनुकूलन के रूप में लोक अदालतें:
- सुगम्यता और लागत प्रभावशीलता: लोक अदालतें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों और सीमांत समुदाय के लोगों के लिये न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करती हैं।
- औपचारिक अदालतों की तुलना में अनौपचारिक कार्यवाहियों में लागत और समय कम लगता है।
- लंबित मामलों में कमी: विवादों का शीघ्र निपटारा करके, लोक अदालतों ने औपचारिक अदालतों पर बोझ कम करने में मदद की है। (तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत- 2024 के दौरान 1.14 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया गया)
- सुलह/समझौते पर ज़ोर: समाधान समझौते के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जाता है और लंबे समय तक चलने वाले प्रतिकूल मुकदमेबाज़ी से बचा जाता है।
- विस्तृत क्षेत्राधिकार: लोक अदालतें विवादों की एक विस्तृत शृंखला का निपटान करती हैं, जिनमें दीवानी मामले, पारिवारिक मामले, वित्तीय विवाद और समझौता योग्य आपराधिक अपराध शामिल हैं, जो उन्हें बहुमुखी बनाता है।
- पुरस्कारों की बाध्यकारी प्रकृति: जारी किये गए पुरस्कार कानूनी रूप से बाध्यकारी और लागू करने योग्य होते हैं, जिससे अपील की रोकथाम होती है व अंतिमता/निश्चयात्मकता सुनिश्चित होती है।
चुनौतियाँ और सीमाएँ:
आगे की राह:
निष्कर्ष:
लोक अदालत प्रणाली भारत की न्याय प्रणाली के भीतर ए.डी.आर. के सफल अनुकूलन का प्रतीक है, जो औपचारिक न्यायिक प्रक्रियाओं और लोगों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के बीच के अंतर को समाप्त करती है। पारंपरिक पद्धतियों को वैधानिक समर्थन के साथ मिलाकर, लोक अदालतें विवाद समाधान के लिये एक सामंजस्यपूर्ण और लागत प्रभावी मंच प्रदान करती हैं, जो न्याय तक समान पहुँच के संवैधानिक जनादेश को बढ़ावा देती हैं।