प्रश्न: क्या 19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बौद्धिक नींव तैयार की? टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
दृष्टिकोण:
- 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के उदय पर प्रकाश डालते हुए उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने किस प्रकार भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बौद्धिक नींव रखी, इसके लिये तर्क दीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन भारत में औपनिवेशिक संघर्ष, सामाजिक स्थिरता और कठोर जातिगत एवं धार्मिक प्रथाओं के प्रतिक्रियास्वरूप उभरे।
- राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिराव फुले व अन्य सुधारकों ने सामाजिक कुप्रथाओं को खत्म करने और तर्कसंगत सोच को बढ़ावा देने का प्रयास किया, इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन के लिये एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक आधार तैयार हुआ।
मुख्य भाग:
19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार: भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का निर्माण
- बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा: सुधारकों ने तर्कसंगत विचारों को प्रोत्साहित किया, अंधविश्वासों और अंध धार्मिक प्रथाओं को चुनौती दी, जो अंततः भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का केंद्रबिंदु बन गया।
- उदाहरण : राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज के माध्यम से मूर्ति पूजा का विरोध किया और एकेश्वरवाद को बढ़ावा देकर एक बौद्धिक ढाँचा स्थापित किया।
- जातिगत पदानुक्रम और सामाजिक असमानताओं को चुनौती: ज्योतिराव फुले और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने जाति-आधारित भेदभाव का विरोध किया तथा समानता को बढ़ावा दिया, जिससे एकता एवं एकजुटता की भावना को बल मिला।
- उदाहरण : शिक्षा को बढ़ावा देने और निम्न जाति के व्यक्तियों के उत्थान के माध्यम से, सत्यशोधक समाज के साथ ज्योतिराव फुले के प्रयासों ने जागरूकता बढ़ाने और सीमांत समुदायों को संगठित करने में मदद की, जो स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण थी।
- महिला अधिकारों की उन्नति: इन सुधारकों ने बाल विवाह, सती प्रथा और महिला निरक्षरता जैसी दमनकारी प्रथाओं का विरोध किया तथा महिला सशक्तीकरण का समर्थन किया, जिससे राष्ट्रवादी भागीदारी का आधार विस्तृत हुआ।
- उदाहरण : विधवा पुनर्विवाह और बालिका शिक्षा के लिये ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अभियान ने महिलाओं को सशक्त बनाया।
- गौरवशाली भारतीय अतीत से प्रेरणा: स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारकों ने भारत के प्राचीन गौरव और दार्शनिक विरासत पर बल दिया, जिससे भारतीयों में गर्व तथा आत्मविश्वास की भावना जागृत हुई।
- उदाहरण : विवेकानंद के भाषणों, विशेषकर शिकागो विश्व धर्म संसद में उनके संबोधन ने भारत की महानता में विश्वास को सुदृढ़ किया तथा एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जो स्वतंत्रता संग्राम के साथ संबद्ध था।
- स्थानीय भाषाओं और साहित्य का पुनरुद्धार: सामाजिक-धार्मिक नेताओं ने स्थानीय साहित्य और भाषा को बढ़ावा दिया, जिससे जनता सुधारवादी विचारों तथा उत्तरोत्तर राष्ट्रवादी आदर्शों से जुड़ने में सक्षम हुई।
- उदाहरण : बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का ‘आनंदमठ’ जिसमें ‘वंदे मातरम्’ गीत शामिल है, स्वतंत्रता सेनानियों के लिये एक नारा बन गया, जो राष्ट्रीय पहचान के साथ सांस्कृतिक गौरव के सम्मिलन का प्रतीक है।
- धर्मनिरपेक्ष और समावेशी दृष्टिकोण: सुधार आंदोलनों ने सार्वभौमिक मानवतावाद पर ज़ोर दिया, जो राष्ट्रीय आंदोलन के समावेशी दृष्टिकोण के अनुरूप था।
- उदाहरण : प्रार्थना समाज द्वारा अंतर-जातीय विवाह और सांप्रदायिक सद्भाव पर बल देने से राष्ट्रीय आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर प्रभाव पड़ा।
- सुधारवादी संगठनों का गठन: सुधार आंदोलनों ने ऐसे संगठनों की स्थापना की, जिन्होंने सार्वजनिक वाद-विवाद, राजनीतिक जागरूकता और सुधारों की आवश्यकता को बढ़ावा दिया, जिसने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राजनीतिक लामबंदी के लिये आधार तैयार किया।
- उदाहरण : स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज ने वैदिक मूल्यों पर बल देकर एक राष्ट्रवादी संदेश दिया।
निष्कर्ष:
19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने वास्तव में बौद्धिक और सांस्कृतिक चेतना की नींव रखी, सामाजिक बुराइयों को चुनौती दी तथा एक समावेशी राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा दिया। इस परिवर्तन ने सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना प्रदान किया जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को आधार प्रदान किया, जिसने अंततः उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में विभिन्न समूहों को एकजुट किया।