प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षा के लिये आवश्यक है, फिर भी इसे महत्त्वपूर्ण प्रणालीगत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। न्यायिक सुधारों को प्रस्तावित कीजिये जो इन चुनौतियों का समाधान कर सकें और न्यायिक प्रणाली की दक्षता तथा पारदर्शिता को बढ़ा सकें। (250 शब्द)
उत्तर :
दृष्टिकोण:
- लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में न्यायपालिका की भूमिका का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
- भारतीय न्यायपालिका के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
- भारतीय न्यायपालिका में चुनौतियों का समाधान करने के लिये न्यायिक सुधारों को प्रस्तावित कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
न्यायपालिका लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ है, जिसका काम संविधान को बनाए रखना, मौलिक अधिकारों की रक्षा करना और विधि का शासन सुनिश्चित करना है। यह कार्यपालिका और विधायिका शाखाओं पर नियंत्रण के रूप में कार्य करता है, लोकतांत्रिक प्रणाली में शक्ति संतुलन को बनाए रखता है।
मुख्य भाग:
अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, भारतीय न्यायपालिका को कई प्रणालीगत चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:
- लंबित मामलों की संख्या: भारतीय न्यायपालिका लंबित मामलों की भारी समस्या से जूझ रही है, जिससे ससमय न्याय मिलने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
- सर्वोच्च न्यायालय में वर्तमान में 80,000 से अधिक मामले लंबित हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में 620,000 से अधिक मामले लंबित हैं तथा अधीनस्थ न्यायालयों में वर्ष 2023 के अंत तक 40 मिलियन से अधिक मामले अनसुलझे पाए गए।
- न्यायिक रिक्तियाँ: न्यायपालिका के सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, जिससे लंबित मामलों की संख्या में बहुत वृद्धि हो रही है।
- भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें न्यायाधीशों के स्वीकृत पद 1,114 हैं, लेकिन वर्तमान में केवल 782 पदों पर ही भर्ती हुई है, जिससे 332 न्यायाधीशों के पद रिक्त रह गए हैं।
- न्यायिक दायित्व का अभाव: न्यायिक दायित्व सुनिश्चित करने के लिये एक सदृढ़ तंत्र का अभाव चिंता का विषय रहा है, जिससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास प्रभावित हो सकता है।
- कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के प्रस्ताव को वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
- बुनियादी अवसंरचना और तकनीकी अंतराल: आधुनिकीकरण के प्रयासों के बावजूद, कई भारतीय न्यायालयों में अभी भी पर्याप्त बुनियादी अवसंरचना और तकनीकी सहायता का अभाव है, जिससे कुशल न्याय सुनिश्चितता में बाधा उत्पन्न हो रही है।
- ज़िला न्यायपालिका में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,081 पदों के लिये 4,250 न्यायालय कक्षों और 6,021 आवासीय इकाइयों की कमी है।
- कार्यपालिका का हस्तक्षेप और न्यायिक स्वतंत्रता: हाल के वर्षों में न्यायिक मामलों में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के कई उदाहरण देखे गए हैं, जिससे न्यायिक स्वायत्तता के ह्रास के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
- सुगम्यता संबंधी मुद्दे: कानूनी प्रक्रियाओं की जटिलता, मुकदमेबाज़ी की उच्च लागत और कानूनी सहायता की कमी के कारण समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों के लिये न्याय तक पहुँच कठिन हो जाती है।
- ई-फाइलिंग और केस रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण: 31 जुलाई 2023 तक 18,36,627 मामले ई-फाइल किये जा चुके हैं, जिनमें से 11,88,842 (65%) मामले ज़िला न्यायालयों में ई-फाइल किये गए। हालाँकि iJuris पर न्यायिक अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, केवल 48.6% ज़िला न्यायालय परिसरों में ही कार्यात्मक ई-फाइलिंग सुविधा है।
प्रस्तावित न्यायिक सुधार:
- न्यायिक लंबित मामलों का समाधान: भारत ई-कोर्ट परियोजना को पूर्ण रूप से क्रियान्वित और विस्तारित करके लंबित मामलों की संख्या को बहुत हद तक कम कर सकता है, जिसमें न्यायालय के अभिलेखों के डिजिटलीकरण, ऑनलाइन केस फाइलिंग एवं AI- सहायता प्राप्त केस प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र: मध्यस्थता, पंचनिर्णय और लोक अदालतों जैसे ADR तंत्रों को बढ़ावा देने तथा सुदृढ़ करने से औपचारिक न्यायालयों पर बोझ बहुत हद तक कम हो सकता है।
- रिक्तियों की भर्ती: न्यायिक रिक्तियों की भर्ती के लिये त्वरित प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- एक स्वायत्त और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) की स्थापना से न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा जवाबदेही बढ़ सकती है।
- कानूनी सहायता और न्याय तक पहुँच: न्याय तक पहुँच में सुधार के लिये कानूनी सहायता सेवाओं को बढ़ाना आवश्यक है। भारत नीदरलैंड की प्रणाली से प्रेरणा ले सकता है, जहाँ प्रत्येक नागरिक आय स्तर के आधार पर सब्सिडी वाली कानूनी सहायता पाने का अधिकारी है।
- न्यायालय का बुनियादी अवसंरचना और संसाधन प्रबंधन: कुशल न्याय वितरण के लिये न्यायालय के बुनियादी अवसंरचना में सुधार करना महत्त्वपूर्ण है।
- ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में बुनियादी अवसंरचना के विकास के लिये केंद्र सरकार की केंद्र प्रायोजित योजना (CSS), जिसका कुल परिव्यय 9,000 करोड़ रुपए है, एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:
एक पारदर्शी, कुशल और जवाबदेह न्यायपालिका न केवल लोकतांत्रिक समाज के कामकाज के लिये बल्कि विधि व्यवस्था में जनता का विश्वास बनाए रखने के लिये भी आवश्यक है। यदि न्यायिक सुधारों को अक्षरशः और भावना से लागू किया जाए, तो संवैधानिक मूल्यों एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के एक दृढ़ संरक्षक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका बढ़ेगी।