वैश्विक शक्ति गतिशीलता के लिये बढ़ती रूस-चीन सामरिक साझेदारी के निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। इस संदर्भ में भारत को इन दो शक्तियों के साथ अपने संबंधों को कैसे अग्रेषित करना चाहिये? (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- बढ़ते रूस-चीन संबंधों का उल्लेख करते हुए उत्तर की भूमिका लिखिये
- वैश्विक शक्ति गतिशीलता के लिये बढ़ती रूस-चीन सामरिक साझेदारी के निहितार्थ बताइए
- बताइए कि रूस और चीन के साथ भारत अपने संबंध को कैसे अग्रेषित कर सकता है
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये
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परिचय:
रूस और चीन के बीच बढ़ती सामरिक साझेदारी एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम है, जिसका वैश्विक शक्ति गतिशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
- जैसे-जैसे ये दो प्रमुख शक्तियाँ सैन्य, आर्थिक और राजनय क्षेत्रों सहित विभिन्न क्षेत्रों में अपने सहयोग को गहन कर रही हैं, अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है।
मुख्य भाग:
वैश्विक शक्ति गतिशीलता के लिये बढ़ती रूस-चीन सामरिक साझेदारी के निहितार्थ:
- अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था के लिये चुनौती: रूस-चीन साझेदारी अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था के लिये एक महत्त्वपूर्ण चुनौती प्रस्तुत करती है, जो संभावित रूप से बहुध्रुवीय विश्व की ओर स्थित्यंरण को तीव्र कर सकती है।
- वर्ष 2017 में बाल्टिक सागर में रूस-चीन के संयुक्त नौसैनिक अभ्यास ने उनके बढ़ते सैन्य सहयोग और अपनी सीमाओं से दूर शक्ति प्रदर्शन की इच्छा का संकेत दिया, जिससे क्षेत्र में नाटो के प्रभाव को प्रत्यक्ष चुनौती मिली।
- आर्थिक एकीकरण और वैकल्पिक वित्तीय प्रणालियाँ: रूस और चीन अमेरिकी डॉलर और पश्चिमी-प्रभुत्व वाली वित्तीय प्रणालियों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिये कार्य कर रहे हैं।
- SWIFT के विकल्प के रूप में चीन की क्रॉस-बॉर्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम (CIPS) और रूस की वित्तीय संदेशों के हस्तांतरण की प्रणाली (SPFS) का विकास, पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रति कम संवेदनशील समानांतर वित्तीय संरचनाओं के निर्माण के उनके प्रयासों को प्रदर्शित करता है।
- तकनीकी सहयोग: 5G, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और अंतरिक्ष अन्वेषण सहित उच्च तकनीक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ने से दोनों देशों में तकनीकी प्रगति में तेज़ी आ सकती है।
- रूस के 5G नेटवर्क के विकास में हुवावे की भागीदारी, जबकि अमेरिका अपने सहयोगियों पर चीनी कंपनी को बाहर रखने का दबाव डाल रहा है, दोनों देशों के बीच गहरे होते तकनीकी संबंधों को प्रदर्शित करता है।
- ऊर्जा साझेदारी: रूस और चीन के बीच सुदृढ़ ऊर्जा सहयोग वैश्विक ऊर्जा बाज़ार और भू-राजनीति को प्रभावित करता है।
- साइबेरिया पाइपलाइन की शक्ति न केवल दोनों देशों के बीच ऊर्जा संबंधों को सुदृढ़ करती है, बल्कि यूरोपीय बाज़ारों पर रूस की निर्भरता को भी कम करती है।
- राजनयिक संरेखण: मंचों (जैसे ब्रिक्स, एससीओ) और वैश्विक मुद्दों पर समन्वय में वृद्धि से राजनयिक गतिशीलता को नया आकार मिल सकता है।
रूस और चीन के साथ भारत के संबंधों का मार्गनिर्देशन:
- सामरिक स्वायत्तता का अनुरक्षण: भारत को अपनी सामरिक स्वायत्तता की नीति जारी रखनी चाहिये तथा किसी भी गुट के साथ विशेष रूप से जुड़े बिना रूस, चीन और पश्चिम के साथ अपने संबंधों को संतुलित रखना चाहिये।
- शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता (क्वाड) दोनों में भारत की भागीदारी, अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिये, विरोधी प्रतीत होने वाले समूहों के साथ जुड़ने की इसकी क्षमता को प्रदर्शित करती है।
- आर्थिक अवसरों का उद्यामन: भारत को अपने हितों की रक्षा करते हुए दोनों देशों से आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहिये।
- पश्चिमी दबाव के बावजूद भारत द्वारा रूस से तेल आयात जारी रखना तथा एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक (AIIB) जैसी चीन के नेतृत्व वाली पहलों में इसकी भागीदारी, आर्थिक भागीदारी के प्रति इसके व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है।
- रक्षा साझेदारी का सुदृढ़ीकरण: सैन्य उपकरणों के स्रोतों में विविधता लाते हुए रूस के साथ रक्षा संबंधों का अनुरक्षण और संवर्द्धन करना चाहिये।
- रूस से S-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली की अधिप्राप्ति तथा अमेरिका के साथ बढ़ते रक्षा सहयोग से भारत की रक्षा साझेदारी के प्रति संतुलित दृष्टिकोण का पता चलता है।
- क्षेत्रीय साझेदारी का संवर्द्धन: अधिक संतुलित एशियाई शक्ति गतिशीलता के निर्माण हेतु अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संबंधों का सुदृढ़ीकरण आवश्यक है।
- भारत की "एक्ट ईस्ट" नीति और जापान, ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम जैसे देशों के साथ बढ़ती साझेदारी क्षेत्र में चीन के प्रभाव का प्रतिकार करने में सहायक है।
निष्कर्ष:
रूस-चीन के बीच बढ़ती सामरिक साझेदारी भारत के लिये चुनौतियाँ और अवसर दोनों प्रस्तुत करती है। अपनी सामरिक स्वायत्तता का अनुरक्षण, आर्थिक अवसरों का उद्यामन, रक्षा साझेदारी का सुदृढ़ीकरण, बहुपक्षीय मंचों में संलिप्तता, सीमा मुद्दों का संबोधन, क्षेत्रीय साझेदारी का संवर्द्धन, घरेलू क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हुए और जहाँ संभव हो, मध्यस्थता की भूमिका निभाते हुए, भारत इन दोनों शक्तियों के साथ अपने संबंधों को प्रभावी ढंग से मार्गनिर्देशित कर सकता है और साथ ही विकसित हो रही वैश्विक व्यवस्था में अपने हितों को अग्रेषित कर सकता है।