भारत की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देने में संविधान में निहित राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों की भूमिका का विश्लेषण करते हुए मूल अधिकारों के साथ इनके संबंधों का परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- DPSP से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालते हुए उत्तर की भूमिका लिखिये।
- भारत की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देने में DPSP की भूमिका लिखिये।
- मूल अधिकारों के साथ संबंध पर प्रकाश डालिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में निहित राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व (DPSP) सामाजिक-आर्थिक नीतियों को निर्मित करने और कार्यान्वित करने में सरकार के लिये दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करते हैं।
- यद्यपि ये सिद्धांत विधिक रूप से प्रवर्तनीय नहीं हैं, फिर भी ये देश के शासन और विकास पथ को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मुख्य भाग:
भारत की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देने में DPSP की भूमिका:
- आर्थिक न्याय और समानता: अनुच्छेद 38 राज्य को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 39 संसाधनों के न्यायसंगत वितरण और धन के संकेंद्रण के रोकथाम पर ज़ोर देता है।
- प्रभाव: इन सिद्धांतों ने भूमि सुधार, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और विभिन्न निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों जैसी नीतियों को प्रभावित किया है।
- श्रम कल्याण: अनुच्छेद 41 राज्य को काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 43 में जीवन निर्वाह योग्य वेतन और सभ्य कार्य स्थितियों के प्रावधान पर बल दिया गया है।
- प्रभाव: इसके फलस्वरूप चार श्रम संहिताएँ अधिनियमित की गईं।
- शिक्षा और सांस्कृतिक संरक्षण: अनुच्छेद 45 (जैसा कि मूल रूप से अधिनियमित किया गया था) में बच्चों के लिये निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया था।
- अनुच्छेद 48 राज्य को ऐतिहासिक महत्त्व के स्मारकों की सुरक्षा करने का निर्देश देता है।
- प्रभाव: इन सिद्धांतों के फलस्वरूप शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक संरक्षण पहलों को बढ़ावा मिला।
- पर्यावरण संरक्षण: अनुच्छेद 48A (42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया) राज्य को पर्यावरण और वन्यजीवों की सुरक्षा का निर्देश देता है।
- प्रभाव: इसने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 जैसे पर्यावरण कानून तथा नीतियों को प्रभावित किया है।
- अंतर्राष्ट्रीय संबंध: अनुच्छेद 51 अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देता है।
- प्रभाव: इसने भारत की विदेश नीति को आकार दिया है, जिसमें शीत युद्ध के दौरान उसका गुटनिरपेक्ष रुख भी शामिल है।
मूल अधिकारों के साथ संबंध:
DPSP और मूल अधिकारों के बीच संबंध समय के साथ विकसित हुए हैं, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों में परिलक्षित होता है:
- प्रारंभिक संघर्ष: स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में, DPSP और मूल अधिकारों के बीच संघर्ष माना जाता था।
- मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोराईराजन (वर्ष 1951) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संघर्ष की स्थिति में मूल अधिकार DPSP पर अभिभावी होंगे।
- सामंजस्यपूर्ण विधान की मान्यता: केरल शिक्षा विधेयक (वर्ष 1957) के संबंध में, सर्वोच्च न्यायालय ने DPSP और मूल अधिकारों के बीच सामंजस्यपूर्ण विधान की वकालत की, जिसमें कहा गया कि मूल अधिकारों के दायरे का निर्धारण करते समय DPSP को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिये, जो उनकी पूरकता की ओर परिवर्तन का संकेत देता है।
- मूल संरचना सिद्धांत: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973) के, निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि DPSP और मूल अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं और इनकी व्याख्या सामंजस्यपूर्ण ढंग से की जानी चाहिये।
- सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों में संतुलन: पथुम्मा बनाम केरल राज्य (वर्ष 1978 ) में, सर्वोच्च न्यायालय ने DPSP पर आधारित कानून को बरकरार रखा तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिये DPSP और मूल अधिकारों दोनों का संयोजन आवश्यक है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि संविधान के व्यापक लक्ष्य पूरे हों।
- मूल अधिकारों की सर्वोच्चता की पुष्टि: मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (वर्ष 1980) में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि यद्यपि DPSP महत्त्वपूर्ण हैं, वे मूल अधिकारों को प्रत्यादेशित नहीं कर सकते।
- सामाजिक-आर्थिक अधिकारों पर विकसित न्यायशास्त्र: ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (वर्ष 1985) में, सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को बढ़ाकर इसमें आजीविका का अधिकार भी शामिल कर दिया तथा DPSP के सामाजिक-आर्थिक सिद्धांतों को मूल अधिकारों के प्रवर्तनीय दायरे में एकीकृत कर दिया।
- संवैधानिक विवेक: डालमिया सीमेंट बनाम भारत संघ (वर्ष 1996) में, सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि DPSP और मूल अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि वे मिलकर संविधान की चेतना का निर्माण करते हैं तथा भारत की सामाजिक क्रांति को अग्रेषित करते हैं।
निष्कर्ष
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों ने भारत की सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा समावेशी विकास के लिये दिशा-निर्देश उपलब्ध कराया है। आज, नीति-निर्देशक सिद्धांत न केवल नीति-निर्माण के लिये मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं, बल्कि मूल अधिकारों की व्याख्या करने और उनके दायरे को विस्तारित करने के लिये आवश्यक उपकरण के रूप में भी कार्य करते हैं, जिससे न्यायपूर्ण तथा समतामूलक समाज के संवैधानिक दृष्टिकोण को साकार करने में योगदान मिलता है।