भारतीय संदर्भ में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का विश्लेषण कीजिये। इसके प्रभावी कार्यान्वयन की चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और इस प्रणाली को मज़बूत करने के उपाय सुझाएँ। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- शक्तियों के पृथक्करण का परिचय दीजिये।
- इससे संबंधित संवैधानिक प्रावधानों और प्रमुख विशेषताओं के बारे में बताइये।
- इसके प्रभावी कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों का उल्लेख कीजिये।
- प्रणाली को सुदृढ़ करने के उपाय सुझाइये।
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परिचय:
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत भारत के संवैधानिक ढाँचे में अंतर्निहित एक मौलिक सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य सत्ता के संकेंद्रण को रोकना तथा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच नियंत्रण एवं संतुलन सुनिश्चित करना है।
मुख्य भाग:
भारत में शक्तियों का पृथक्करण:
- सिद्धांत: यद्यपि संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 50, 121, 122, 211 और 361 से लिया गया है तथा विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से भारतीय लोकतांत्रिक ढाँचे में समाहित किया गया है।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- विधानमंडल (संसद): विधि निर्माण,
- कार्यपालिका (सरकार): कानूनों को लागू करता है,
- न्यायपालिका (न्यायालय): कानूनों की व्याख्या करता है और संवैधानिक अनुपालन सुनिश्चित करता है।
- उदाहरण: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक मामले ने 'मूल ढाँचा सिद्धांत' की स्थापना की, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति भी न्यायिक समीक्षा के अधीन है, इस प्रकार शक्तियों के पृथक्करण को सुदृढ़ किया गया।
प्रभावी कार्यान्वयन में चुनौतियाँ:
- न्यायिक अतिक्रमण: न्यायिक समीक्षा जाँच और संतुलन बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अत्यधिक न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका तथा अन्य शाखाओं के बीच अस्पष्टता की संभावना बन सकती है।
- मोहित मिनरल प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि GST परिषद् की सिफारिश केवल अनुशंसात्मक है अपितु बाध्यकारी नहीं है, इसे न्यायिक अतिक्रमण माना जा सकता है।
- कार्यपालिका का प्रभुत्व: कार्यपालिका, मूलतः अध्यादेश निर्माण की शक्तियों और नौकरशाही पर नियंत्रण के माध्यम से, प्रायः अन्य शाखाओं पर प्रभावी हो जाती है।
- उदाहरण: वर्ष 2010 और वर्ष 2016 के बीच शत्रु संपत्ति अध्यादेश को बार-बार प्राख्यापित करना।
- कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य 2017 मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विधायी विचार के बिना बार-बार अध्यादेशों को प्राख्यापित करना असंवैधानिक है और संविधान के साथ धोखाधड़ी है।
- विधायी जाँच का क्षरण: संसदीय बैठकों की संख्या में कमी और विधेयकों का जल्दबाजी में पारित होना। लोकसभा में बैठकों के दिवसों की संख्या का वार्षिक औसत वर्ष 1952-70 के दौरान 121 था, जो घटकर वर्ष 2000 से 68 दिवस रह गया है।
- उदाहरण: वर्ष 2020 के कृषि विधेयकों को विरोध के बीच राज्यसभा में ध्वनि मत के साथ पारित किया गया।
- कमज़ोर संस्थागत स्वायत्तता: ED, CBI और CVC जैसी संस्थाओं को अपनी स्वतंत्रता के लिये चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- उदाहरण: वर्ष 2019 में CBI निदेशक आलोक वर्मा को हटाने पर विवाद।
- विनीत नारायण बनाम भारत संघ मामले में, उच्चतम न्यायालय ने CBI की स्वायत्तता सुनिश्चित करने में उसके कामकाज के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
प्रणाली को मज़बूत करने के उपाय:
- न्यायिक सुधार:
- पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया: न्यायिक नियुक्तियों के लिये एक नवीन प्रणाली स्थापित करना, न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाना।
- इसमें पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का संशोधित संस्करण शामिल हो सकता है।
- न्यायिक जवाबदेहिता कानून: स्वतंत्रता से समझौता किये बिना न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये एक व्यापक कानून बनाना।
- इसमें न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक 2010 का परिष्कृत संस्करण शामिल हो सकता है।
- विधायी सुदृढ़ीकरण:
- संसदीय बैठकों में वृद्धि: संसद के लिये न्यूनतम कार्य दिवसों की संख्या अनिवार्य करना।
- संसदीय समितियों को सशक्त बनाना: विधेयकों और नीतियों की जाँच करने में विभाग-संबंधित स्थायी समितियों की भूमिका को सुदृढ़ करना।
- सभी महत्त्वपूर्ण विधेयकों को पारित होने से पहले संबंधित समितियों को संदर्भित करना अनिवार्य बनाना।
- दल-बदल विरोधी कानून में सुधार: पार्टी अनुशासन और विधायी स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने के लिये दसवीं अनुसूची में संशोधन करना।
- अविश्वास प्रस्तावों और धन विधेयकों को छोड़कर सभी मुद्दों पर स्वतंत्र मतदान की अनुमति देना।
- कार्यकारी जवाबदेहिता:
- लोकपाल को मज़बूत बनाना: लोकपाल संस्था को पूरी तरह लागू करना और उसे सशक्त बनाना।
- समय पर नियुक्तियाँ सुनिश्चित करना और जाँच के लिये पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराना।
- सिविल सेवाओं में सुधार: नौकरशाही तटस्थता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिये व्यापक सिविल सेवा सुधारों को लागू करना।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा अनुशंसित प्रमुख पदों के लिये कार्यकाल निश्चित करना।
- संस्थागत स्वायत्तता:
- प्रमुख संस्थाओं के लिये वैधानिक स्वतंत्रता: ED, CBI और CVC जैसी संस्थाओं की कार्यात्मक तथा वित्तीय स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिये विधि निर्माण करना।
- CBI की स्वायत्तता के लिये विनीत नारायण मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों को कानून में संहिताबद्ध किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
भारत में शक्तियों के पृथक्करण को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, यह एक महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक सिद्धांत बना हुआ है। न्यायिक घोषणाओं और सार्वजनिक चर्चा द्वारा निर्देशित तीन शाखाओं के बीच गतिशील अंतः क्रिया, भारतीय संदर्भ में इस सिद्धांत को आकार देने और परिष्कृत करने का काम जारी रखती है। महत्त्वपूर्ण संतुलन बनाए रखने, जाँच की सुदृढ़ता, संतुलन सुनिश्चित करने, संस्थागत अखंडता और सार्वजनिक विश्वास को बढ़ावा देने में निहित है।