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ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके बाद के ब्रिटिश राज की आर्थिक नीतियों का परीक्षण कीजिये। इन नीतियों ने भारत के कृषि, औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास को किस प्रकार आकार दिया? (250 शब्द)

    29 Jul, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • आर्थिक शोषण के दौर के रूप में उत्तर के प्रारूप को रेखांकित करते हुए उत्तर का परिचय दीजिये।
    • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक नीतियों और कृषि, औद्योगिक तथा वाणिज्यिक विकास पर इसके प्रभाव का गहराई से अध्ययन कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company- EIC) और बाद में ब्रिटिश राज द्वारा क्रियान्वित की गई आर्थिक नीतियाँ भारत के आर्थिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्होंने सदियों तक राष्ट्र के विकास पथ को गहराई से आकार दिया।

    ये नीतियाँ भारत को एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था से ब्रिटिश औद्योगिक और वाणिज्यिक हितों के लिये एक औपनिवेशिक बाज़ार एवं कच्चे माल के आपूर्तिकर्त्ता में बदलने में सहायक थीं।

    मुख्य भाग:

    ईस्ट इंडिया कंपनी (1773-1858):

    ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्य उद्देश्य व्यापार के माध्यम से अधिकतम लाभ कमाना था। इसकी आर्थिक नीतियाँ इस प्रकार थीं:

    • एकाधिकार और व्यापार: कंपनी ने विशिष्ट वस्तुओं, विशेषकर वस्त्र और मसालों पर एकाधिकार स्थापित किया।
      • उदाहरणतः कंपनी ने बंगाल के नमक और अफीम के व्यापार के विशेष अधिकार हासिल कर लिये जिसके कारण स्थानीय जनता को इनकी कीमतें बहुत अधिक चुकानी पड़ीं।
    • भू-राजस्व प्रणाली: राजस्व संग्रह को अधिकतम करने के लिये स्थायी बंदोबस्त, महालवारी और रैयतवारी प्रणालियों की शुरुआत की गई।
      • उदाहरणतः बंगाल में स्थायी बंदोबस्त ने ज़मींदारों को भू-राजस्व एकत्र करने का अधिकार दे दिया, जिससे किसानों का शोषण हुआ और कृषि विकास में बाधा उत्पन्न हुई।
    • कृषि का व्यावसायीकरण: कंपनी ने यूरोपीय मांगों को पूरा करने के लिये नकदी फसल (नील, कपास, अफीम) की खेती को बढ़ावा दिया।
      • नील की खेती, जो एक श्रम-प्रधान फसल है, व्यापक ऋणग्रस्तता और कृषि अशांति को जन्म देती है, जिसका उदाहरण नील विद्रोह है।
      • व्यावसायीकरण के कारण भूमि का विखंडन, ऋणग्रस्तता और अकाल की स्थिति पैदा हुई। 1876-78 का महान अकाल इस कृषि संकट के परिणामों का एक स्पष्ट उदाहरण है।

    ब्रिटिश राज (1858-1947):

    ब्रिटिश क्राउन के सत्ता में आने के साथ ही, आर्थिक नीतियाँ अधिक व्यवस्थित और शोषणकारी हो गईं:

    • विऔद्योगीकरण: अंग्रेज़ों ने भारत के कपड़ा उद्योग, जो एक प्रमुख आर्थिक आधार था, को नष्ट करने की नीतियाँ अपनाईं।
      • भारतीय वस्त्रों पर भारी शुल्क लगाने तथा सस्ते ब्रिटिश मशीन-निर्मित कपड़े के आगमन से लाखों बुनकरों की आजीविका नष्ट हो गई।
    • कच्चा माल आपूर्तिकर्त्ता: भारत ब्रिटिश उद्योगों के लिये कपास, जूट और नील जैसे कच्चे माल का प्राथमिक उत्पादक बन गया।
      • कपास की खेती के लिये अनुपयुक्त क्षेत्रों में इसकी खेती से मिट्टी की उर्वरता कम हो गई और कृषि उत्पादकता में कमी आई।
    • बुनियादी ढाँचे का विकास: यद्यपि रेलवे और सिंचाई जैसे कुछ बुनियादी ढाँचे का विकास किया गया, लेकिन ये भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाने के बजाय मुख्य रूप से संसाधन निष्कर्षण एवं निर्यात के लिये थे।
      • उदाहरणतः रेलवे ने घरेलू व्यापार के लिये ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ने के बजाय निर्यात हेतु बंदरगाहों तक कच्चे माल के परिवहन की सुविधा प्रदान की।
    • धन का निष्कासन: होम चार्जेज़, ब्रिटेन को धन का एक विशाल हस्तांतरण, ने भारत को और अधिक निर्धन बना दिया।
      • इसमें ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन, शेयरधारकों को लाभांश और युद्ध क्षतिपूर्ति के भुगतान शामिल थे।
      • दादाभाई नौरोजी के धन निष्कासन सिद्धांत में कहा गया था कि गरीबी के पीछे मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन था जो भारत की संपत्ति और समृद्धि को नष्ट कर रहा था।

    निष्कर्ष:

    ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज की आर्थिक नीतियों ने भारत के आर्थिक परिदृश्य को मौलिक रूप से बदल दिया। हालाँकि कुछ आधुनिकीकरण प्रभाव थे, लेकिन कुल मिलाकर प्रभाव काफी हद तक शोषणकारी था, जिसने भारत के संतुलित आर्थिक विकास एवं आत्मनिर्भरता में बाधा उत्पन्न की।

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