भारत में वृद्धजनों की संख्या में वृद्धि क्यों हो रही है? वृद्धजनों की संवेदनशीलता पर चर्चा करते हुए उन्हें सशक्त बनाने के उपाय बताइये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में वृद्धजनों की संख्या में वृद्धि का संक्षिप्त में परिचय दीजिये।
- भारत में वृद्धजनों की संख्या में वृद्धि में योगदान देने वाले प्राथमिक कारकों का उल्लेख कीजिये।
- भारत में वृद्धजनों द्वारा सामना की जाने वाली कमज़ोरियों पर चर्चा कीजिये।
- वृद्धजनों को सशक्त बनाने के लिये समाधान प्रस्तावित कीजिये।
- वृद्धजनों को सामाजिक भूमिकाओं में एकीकृत करने के तरीकों पर ज़ोर देते हुए निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
WHO द्वारा 60-74 वर्ष की आयु वाले लोगों को वृद्धजनों की श्रेणी में रखा गया है। भारत के संदर्भ में किसी व्यक्ति को वृद्धजन के रूप में वर्गीकृत करने के उद्देश्य से भारत की जनगणना द्वारा 60 वर्ष की आयु को माना गया है, जो सरकारी क्षेत्र में सेवानिवृत्ति की आयु के साथ मेल खाता है।
जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में 104 मिलियन वृद्धजन (60+ वर्ष) हैं, जो कुल जनसंख्या का 8.6% है। वृद्धजनों (60+) में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। यह उम्मीद की जाती है कि देश में वर्ष 2030 तक 193 मिलियन वृद्धजन होंगे, जो कुल जनसंख्या का लगभग 13% होगा। UNFPA रिपोर्ट 2023 के अनुसार, देश में वृद्धजनों की संख्या का प्रतिशत 2050 तक दोगुनी हो जाने का अनुमान है, जो कुल जनसंख्या का 20% से अधिक है।
मुख्य भाग :
भारत में वृद्धजनों की बढ़ती संख्या में योगदान देने वाले प्राथमिक कारक:
- बढ़ी हुई दीर्घायु: भारत में बढ़ी हुई दीर्घायु के प्राथमिक चालकों में से एक स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार है। पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा प्रौद्योगिकी, उपचार और निवारक देखभाल में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में जीवन प्रत्याशा वर्ष 2000 में 62.1 से 5.2 की वृद्धि के साथ 67.3 हो गई है।
- बेहतर जीवन प्रत्याशा: स्वच्छ जल, स्वच्छता और बेहतर पोषण तक पहुँच सहित बेहतर जीवन प्रत्याशा ने भी जीवन अवधि की वृद्धि में योगदान दिया है।
- स्वच्छ भारत अभियान से स्वच्छता कवरेज़ में उल्लेखनीय वृद्धि हुई से जलजनित रोगों की व्यापकता में कमी देखी गई है।
- प्रजनन दर में कमी: भारत सरकार द्वारा जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के उद्देश्य से विभिन्न परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किये गए, जो प्रजनन दर को कम करने में सफल रहे हैं।
- वर्ष 2019-21 के दौरान आयोजित NFHS के पाँचवें दौर के अनुसार, कुल प्रजनन दर (TFR) घटकर 2.0 बच्चे प्रति महिला हो गई है, जो 2.1 बच्चे प्रति महिला के साथ प्रजनन क्षमता के प्रतिस्थापन स्तर से कम है।
- सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन :
- सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन, जैसे कि महिला शिक्षा में वृद्धि और कार्यबल में भागीदारी ने भी प्रजनन दर को कम करने तथा महिलाओं में उच्च शिक्षा के स्तर में वृद्धि में भूमिका निभाई है, जो देरी से विवाह एवं बच्चों की संख्या में कमी से संबंधित है। शहरीकरण से परिवार के मानदंड छोटे होते हैं, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में बच्चों का पालन-पोषण अधिक महँगा और मांग वाला हो सकता है।
- केरल, अपनी उच्च साक्षरता दर और उन्नत स्वास्थ्य सेवा के लिये जाना जाता है, केरल की भारत में सबसे अधिक जीवन प्रत्याशा तथा सबसे कम प्रजनन दर है। राज्य वृद्धजनों के प्रबंधन में अन्य क्षेत्रों के लिये एक मॉडल के रूप में कार्य करता है।
भारत में वृद्धजनों से जुड़ी विभिन्न कमजोरियाँ:
- दैनिक जीवन की गतिविधियों में प्रतिबंध (ADL): लगभग 20% वृद्धजनों को दैनिक गतिविधियों में प्रतिबंध का अनुभव होता है, जिसमें स्नान, कपड़े पहनना, खाना आदि बुनियादी स्व-देखभाल गतिविधियाँ शामिल हैं। अकेले रहने वाले या पर्याप्त पारिवारिक सहायता के बिना रहने वाले वृद्धजन अक्सर ADL से जूझते हैं, जिससे उनकी आज़ादी खत्म हो जाती है तथा देखभाल संबंधी सेवाओं की ज़रूरत बढ़ जाती है।
- बहु-रुग्णता: कई दीर्घकालिक बीमारियों का होना वृद्धजनों में एक आम समस्या है, जिससे उनके जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है तथा स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकताएँ बढ़ती हैं।
- लॉन्गिटूडिनल एजिंग स्टडीज ऑफ इंडिया (LASI) की रिपोर्ट के अनुसार 75% वृद्धजन एक या एक से अधिक दीर्घकालिक बीमारियों जैसे- उच्च रक्तचाप, मधुमेह, गठिया और हृदय संबंधी बीमारियों से पीड़ित है।
- गरीबी: आर्थिक कमज़ोरी वृद्धजनों के लिये एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय है, विशेष रूप से उन लोगों के लिये जिनके पास आय के स्थिर स्रोत नहीं हैं, जो उनके जीवन की गुणवत्ता और स्वास्थ्य देखभाल के उपयोग को प्रभावित करते हैं।
- भारत में 40% से अधिक वृद्धजन गरीब वर्ग में आते हैं, जिनमें से लगभग 18.7% बिना आय के जीवन यापन कर रहे हैं। (इंडियन एजिंग रिपोर्ट, 2023)
- सामाजिक मुद्दे: पारिवारिक उपेक्षा, शिक्षा का निम्न स्तर, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ एवं संस्थागत स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाओं पर कम भरोसा आदि जैसे कारक वृद्धजनों की स्थिति को और भी खराब कर देते हैं।
- ‘स्वाभाविक रूप से लिंग आधारित’: जनसंख्या वृद्धजनों के उभरते मुद्दों में से एक “वृद्धजनों का स्त्रीकरण” है, अर्थात् पुरुषों की तुलना में महिलाओं की उम्र अधिक हैं।
- भारत की जनगणना से पता चलता है कि वर्ष 1951 में वृद्धजनों का लिंग अनुपात काफी अधिक (1028) था, जो बाद में वर्ष 1971 में घटकर लगभग 938 हो गया, लेकिन अंततः वर्ष 2011 में बढ़कर 1033 हो गया।
भारत में वृद्धजनों को सशक्त बनाने के लिये उठाए गए कदम:
- अभाव से सुरक्षा: वृद्धजनों के लिये सम्मानजनक जीवन की ओर पहला कदम उन्हें अभाव और उसके साथ आने वाली सभी वंचनाओं से बचाना है। पेंशन के रूप में नकद राशि कई स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने तथा अकेलेपन से बचने में मदद कर सकती है।
- अग्रणी लोगों का अनुकरण करना: दक्षिणी राज्यों और भारत के ओडिशा तथा राजस्थान जैसे गरीब राज्यों ने लगभग सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा पेंशन हासिल कर ली है। उनके कार्य अनुकरणीय हैं।
- बुज़ुर्ग महिलाओं की चिंताओं को पहचानना: नीति को विशेष रूप से अधिक कमज़ोर और आश्रित वृद्ध एकल महिलाओं को ध्यान में रखना चाहिये ताकि वे सम्मानजनक एवं स्वतंत्र जीवन जी सकें।
- अभाव से सुरक्षा:
- वृद्धजनों के लिये सम्मानजनक जीवन की दिशा में पहला कदम यह होगा कि उन्हें अभाव और इससे उत्पन्न सभी वंचनाओं से बचाया जाए। पेंशन के रूप में प्रदत्त नकद राशि विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने और अकेलेपन से बचने में मदद कर सकती है।
- अग्रणी राज्यों का अनुकरण करना:
- दक्षिणी राज्यों और ओडिशा एवं राजस्थान जैसे गरीब राज्यों ने सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा पेंशन की स्थिति प्राप्त कर ली है। उनके कार्य अनुकरणीय हैं।
- वृद्ध महिलाओं की चिंताओं को चिह्नित करना:
- नीति में इस तथ्य का भी संज्ञान लिया जाना चाहिये कि भारत में महिलाएँ औसतन पुरुषों की तुलना में तीन वर्ष अधिक जीती हैं। अनुमान है कि वर्ष 2026 तक वृद्धजनों का लिंग अनुपात बढ़कर 1060 हो जाएगा। चूँकि भारत में महिलाएँ आमतौर पर अपने पतियों से कम आयु की होती हैं, इसलिये वे प्रायः वृद्धावस्था में विधवा के रूप में जीवन बिताती हैं।
- वृद्धजनों के प्रति धारणा में बदलाव लाना:
- वृद्धजनों को बोझ समझने की धारणा को नवोन्मेषी संस्थाओं और सामाजिक एजेंसियों द्वारा बदला जा सकता है, जो उन्हें सशक्त बनाती हैं तथा उन्हें उत्पादक सामाजिक भूमिकाओं में एकीकृत करती हैं।
- ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ द थर्ड एज’ (U3A) एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन है जो सेवानिवृत्त और अर्द्ध-सेवानिवृत व्यक्तियों को आजीवन अधिगम के अवसर प्रदान करता है। यह प्रौद्योगिकी से लेकर कला तक, विभिन्न विषयों में निरंतर शिक्षा को प्रोत्साहित करता है।
- सिंगापुर की ‘वरिष्ठजन रोज़गार योजना’ (Senior Employment Scheme) नौकरी चाहने वाले वृद्धजनों को ऐसे नियोक्ताओं से मिलाने में मदद करती है जो उनके अनुभव और विश्वसनीयता को महत्त्व देते हैं।
निष्कर्ष:
वृद्धजनों के बारे में लोगों की धारणा को दायित्व से संपत्ति में बदलने में नवोन्मेषी संस्थाएँ और सामाजिक एजेंसियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। शिक्षा, रोज़गार, स्वयंसेवा, स्वास्थ्य और कल्याण तथा सामाजिक समावेश के अवसर प्रदान करके नीतिगत पहलों को वृद्धजनों को सशक्त बनाना चाहिये एवं उन्हें सामाजिक भूमिकाओं में एकीकृत करना चाहिये।