प्रयागराज शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 29 जुलाई से शुरू
  संपर्क करें
ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    "जाति व्यवस्था को नई पहचान एवं सांगठनिक रूप मिलने के आलोक में इसे भारत में समाप्त नहीं किया जा सकता है।" चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    24 Jun, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाज

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में जाति व्यवस्था की प्राथमिक प्रकृति का उल्लेख कीजिये।
    • जाति व्यवस्था किस प्रकार नई पहचान और साहचर्य रूप अपना रही है, वर्णन कीजिये।
    • तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    भारतीय समाज में गहनता से समाहित जाति व्यवस्था ने पारंपरिक रूप से सामाजिक पदानुक्रम, व्यावसायिक भूमिकाएँ और वैवाहिक प्रथाओं को निर्धारित किया है। जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के वैधानिक तथा संवैधानिक प्रयासों (जैसे- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-17) के बावजूद, यह विभिन्न रूपों में कायम है।

    मुख्य भाग:

    नई पहचान और संघात्मक स्वरूप

    राजनीतिक लामबंदी

    • जाति-आधारित राजनीतिक दल: जातिगत समूहों ने स्वयं को राजनीतिक संस्थाओं में संगठित किया है। राजनीतिक दल विशिष्ट जाति हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये उभरे हैं।
    • वोट बैंक की राजनीति: राजनेता प्रायः वोट हासिल करने के लिये जातिगत पहचानों को संगठित करते हैं, जिससे राजनीतिक क्षेत्र में जाति-आधारित पहचान कायम होती है।

    आर्थिक संघ

    • जाति-आधारित व्यवसाय संजाल: कुछ जातियों ने शक्तिशाली व्यवसायिक समुदायों का निर्माण किया है, जैसे कि मारवाड़ी, चेट्टियार और अन्य। ये संजाल जाति के भीतर आर्थिक सहायता और अवसर प्रदान करते हैं।
    • माइक्रोफाइनेंस और सहकारिता: ग्रामीण क्षेत्रों में जाति-आधारित सहकारी समितियाँ और माइक्रोफाइनेंस समूह वित्तीय सेवाएँ तथा सहायता प्रदान करते हैं, जिससे जातिगत संबंध मज़बूत होते हैं।

    सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन

    • जाति संघ: कई जातियों ने समुदाय के भीतर कल्याण, शिक्षा एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये अपने स्वयं के सामाजिक संगठन स्थापित किये हैं। ये संघ प्रायः जातिगत पहचान और एकजुटता को बनाए रखने के लिये कार्य करते हैं।
    • वैवाहिक प्रथाएँ: भारतीय समाज में अंतर्विवाह का प्रचलन है, वैवाहिक विज्ञापनों और मैचमेकिंग सेवाओं में प्रायः जातिगत प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया जाता है।

    उन्मूलन में चुनौतियाँ

    सामाजिक मानदंडों का गहरा समावेशन

    • सांस्कृतिक सुदृढ़ीकरण: जातियाँ सांस्कृतिक प्रथाओं, अनुष्ठानों और मानदंडों में अंतर्निहित है जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं।
    • सामाजिक स्तरीकरण: जाति व्यवस्था अपनेपन और पहचान की भावना उत्पन्न करती है, जिससे इन पारंपरिक संरचनाओं को भंग करना मुश्किल हो जाता है।

    आर्थिक निर्भरताएँ

    • संरक्षक-ग्राहक संबंध: ग्रामीण भारत में विभिन्न जाति समूहों (जैसे- भूस्वामी और मज़दूर) के बीच पारंपरिक आर्थिक निर्भरता जाति पदानुक्रम को कायम रखती है।
    • संसाधन वितरण: संसाधनों और अवसरों तक पहुँच प्रायः जातिगत रेखाओं का अनुसरण करती है, जिससे आर्थिक असमानताएँ मज़बूत होती हैं।

    संस्थागत और संरचनात्मक बाधाएँ

    • शिक्षा और रोज़गार: सकारात्मक कार्रवाई हेतु कई नीतियाँ मौजूद हैं, लेकिन शिक्षा और रोज़गार के अवसरों में असमानताएँ जातिगत पूर्वाग्रहों को प्रदर्शित करती हैं।
    • विधिक प्रवर्तन: भेदभाव-विरोधी कानूनों का कार्यान्वयन प्रायः कमज़ोर होता है हालाँकि जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव अभी भी होते हैं।

    शमन के संभावित मार्ग

    शैक्षणिक सुधार

    • समावेशी पाठ्यक्रम: समानता और जाति के हानिकारक प्रभावों पर ज़ोर देने वाली शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने से मानसिकता के परिवर्तन में सहायता मिल सकती है।
    • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच: यह सुनिश्चित करना कि हाशिये पर पड़े समुदायों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच हो, जो उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बना सकता है।

    आर्थिक सशक्तीकरण

    • सकारात्मक कार्रवाई: शिक्षा और रोज़गार में सकारात्मक कार्रवाई को मज़बूत करने से हाशिये पर पड़ी जातियों के उत्थान में सहायता मिल सकती है।
    • उद्यमिता और कौशल विकास: वंचित जातियों को लक्षित करके उद्यमिता एवं कौशल विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से आर्थिक असमानताओं को कम किया जा सकता है।

    वैधानिक एवं नीतिगत उपाय

    • प्रभावी कानून प्रवर्तन: भेदभाव विरोधी कानूनों के प्रवर्तन को मज़बूत करना और जाति-आधारित हिंसा के मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना।
    • नीतिगत सुधार: ऐसी नीतियों का निर्माण करना, जो हाशिये पर पड़ी जातियों की विशिष्ट आवश्यकताओं को समग्र रूप से संबोधित करे।

    सामाजिक आंदोलन और समर्थन

    • ज़मीनी स्तर के आंदोलन: जातिगत समानता और सामाजिक न्याय का समर्थन करने वाले ज़मीनी स्तर के आंदोलनों का समर्थन करना।
    • अंतर-जातीय संवाद: समझ को बढ़ावा देने और पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिये विभिन्न जातिगत समूहों के बीच संवाद को बढ़ावा देना।

    निष्कर्ष:

    भारत में जाति व्यवस्था, विकसित और अनुकूलन करते हुए भी, एक दुर्जेय सामाजिक संरचना बनी हुई है। इसकी निरंतरता पहचान तथा संघ के नए स्वरूपों द्वारा समर्थित है जो जातिगत भेदभाव को मज़बूत करती है। जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और कानूनी आयामों को संबोधित करते हुए समानता तथा समावेश की दिशा में सांस्कृतिक बदलाव को बढ़ावा दिया जाए। जो चुनौतीपूर्ण होते हुए भी निरंतर प्रयासों एवं सुधारों के माध्यम से होने वाली क्रमिक प्रगति एक अधिक समतापूर्ण समाज का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

    To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.

    Print
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2