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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    धन शोधन निवारण अधिनियम के तहत प्रवर्तन निदेशालय की शक्तियों के संबंध में हाल ही में आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रमुख पहलुओं तथा उसके निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    21 May, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • ED और उसके PMLA लागू करने के अधिदेश का परिचय लिखिये।
    • उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले के प्रमुख पहलुओं का वर्णन कीजिये।
    • विभिन्न निर्णयज विधियों का हवाला देते हुए इसके निहितार्थों का उल्लेख कीजिये।
    • पाठ्यक्रम से संबंधित शब्दों का उपयोग करते हुए निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक बहु-विषयक एजेंसी है, जो मनी लॉन्ड्रिंग और विदेशी मुद्रा उल्लंघन की जाँच के लिये ज़िम्मेदार है।

    • यह अपराध से अर्जित संपत्तियों का पता लगाकर, संपत्तियों को अस्थायी रूप से कुर्क करके और अपराधियों पर मुकदमा चलाकर धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के प्रावधानों को लागू करता है।

    मुख्य भाग:

    धन शोधन निवारण अधिनियम के तहत प्रवर्तन निदेशालय की शक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले के महत्त्वपूर्ण निहितार्थ हैं:

    फैसले के प्रमुख पहलू:

    • अभिरक्षा की शक्तियों पर सीमा: उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया कि विशेष न्यायालय द्वारा शिकायत का संज्ञान लेने के बाद ED, PMLA की धारा 19 के तहत किसी आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती है।
      • यह किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की ED की शक्ति को कम कर देता है और आरोपी को PMLA प्रावधानों के संभावित दुरुपयोग से बचाता है।
      • यह विधि सम्यक प्रक्रिया को बढ़ावा देता है और सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तारियाँ न्यायिक जाँच के अधीन हैं।
    • हिरासत में पूछताछ: यदि ED अग्रिम जाँच के लिये आरोपी की हिरासत चाहती है, तो उसे विशेष न्यायालय में आवेदन करना होगा और हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता को उचित ठहराना होगा।
      • न्यायालय केवल तभी हिरासत प्रदान करेगा, जब वह संतुष्ट हो कि इसकी आवश्यकता है, भले ही आरोपी को प्रारंभ में गिरफ्तार नहीं किया गया हो।
      • यह सुरक्षा अनुचित हिरासत में पूछताछ को रोकती है और आरोपी के अधिकारों का सम्मान करती है।
    • ज़मानत संबंधी प्रावधान: निर्णय यह स्पष्ट करते हैं कि एक आरोपी जो समन के अनुसार न्यायालय के समक्ष पेश होता है, उसे CrPC की धारा 437 के तहत नियमित ज़मानत के लिये आवेदन करने की आवश्यकता नहीं है।
      • यह आरोपी को PMLA के तहत ज़मानत के लिये कड़ी दोहरी शर्तों से राहत प्रदान करता है और अधिक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करता है।

    आशय:

    • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रक्रिया को कायम रखना: निकेश ताराचंद शाह मामले (वर्ष 2017) का निर्णय निर्धारित सिद्धांतों को बरकरार रखता है, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने माना था कि वैध कानून द्वारा स्थापित निष्पक्ष, न्यायसंगत तथा उचित प्रक्रिया से परे व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कटौती नहीं की जा सकती है।
    • न्यायिक निगरानी और सुरक्षा सुनिश्चित करना: यह विजय मदनलाल चौधरी मामले (2022) के अनुरूप है, जिसमें PMLA के तहत मनमानी अभिरक्षा के खिलाफ न्यायिक निगरानी और सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया था।
    • संज्ञान के बाद अभिरक्षा शक्तियों को सीमित करना: संज्ञान के बाद ED की गिरफ्तारी की शक्तियों को सीमित करके, निर्णय पंकज बंसल मामले (वर्ष 2023) में उजागर किये गए मुद्दे को संबोधित करता है, जहाँ उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और गिरफ्तारी से अंतरिम सुरक्षा प्रदान करनी पड़ी।
    • ज़मानत प्रणाली में विफलताओं को संबोधित करना: यह फैसला सतेंद्र कुमार अंतिल मामले (वर्ष 2022) में उठाई गई चिंताओं को प्रतिबिंबित करता है, जहाँ उच्चतम न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को पहचानने और ज़मानत देने में देश की ज़मानत प्रणाली की विफलताओं को स्वीकार किया था।
      • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (वर्ष 1977) मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि ज़मानत नियम है और जेल अपवाद।
    • जाँच शक्तियों और वैयक्तिक अधिकारों को संतुलित करना: यह निर्णय जाँच शक्तियों और वैयक्तिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाता है जैसा कि वर्तमान भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उल्लेख करते हुए रेखांकित किया है कि ''इस संतुलन का मूल' उचित प्रक्रिया को बनाए रखने की आवश्यकता है।
    • शीघ्र जाँच पर संभावित प्रभाव: यह जटिल मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में शीघ्र जाँच करने की ED की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

    निष्कर्ष:

    उच्चतम न्यायालय का फैसला PMLA के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करते हुए सम्यक प्रक्रिया, निष्पक्षता और वैयक्तिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों को बनाए रखने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। यह एक संवैधानिक प्रहरी के रूप में न्यायपालिका की भूमिका को मज़बूत करता है और जाँच शक्तियों एवं मौलिक अधिकारों के बीच उचित संतुलन बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम करता है।

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