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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    "न्यायिक अतिरेक लोकतंत्र के विचार के प्रतिकूल हो सकता है"। दिये गए कथन का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    14 May, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • न्यायिक अतिरेक की अवधारणा को बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • दिए गए कथन के समर्थन में तर्क दीजिये।
    • दिए गए कथन के विरोध में तर्क देते हुए उचित निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    न्यायिक अतिरेक एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग आमतौर पर तब किया जाता है जब ऐसा लगता है कि न्यायपालिका ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर लिया है। यह तब होता है जब न्यायपालिका सरकार के विधायी या कार्यकारी अंगों की उचित कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करना शुरू कर देती है, यानी न्यायपालिका अपने स्वयं के कार्य से परे कार्यकारी एवं विधायी कार्यों में हस्तक्षेप करती है।

    मुख्य भाग:

    न्यायिक अतिरेक से लोकतंत्र कमज़ोर होता है, इसके समर्थन में तर्क:

    • विधायी कार्यों में हस्तक्षेप:
      • भारतीय संसद कानून बनाने वाली प्राथमिक संस्था है। जब न्यायालय लोकतांत्रिक तरीके से पारित कानूनों को रद्द करती हैं तो इससे विधायिका के अधिकार के साथ लोकतंत्र की भावना कमज़ोर होती है।
    • शक्ति का संकेंद्रण:
      • इससे न्यायाधीशों के हाथों में शक्ति केंद्रित होने से जवाबदेहिता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं। संसद के निर्वाचित सदस्यों (सांसदों) के विपरीत, न्यायाधीश सीधे जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं।
        • उदाहरण: राजमार्गों पर शराब की बिक्री में प्रतिबंध लगाने या धार्मिक प्रथाओं को विनियमित करने जैसे मुद्दों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप को न्यायिक अतिरेक के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि ये ऐसे मामले हैं जिन्हें विधि निर्माण एवं सार्वजनिक विमर्श के माध्यम से हल किया जा सकता है।
    • विशेषज्ञता की कमी:
      • न्यायाधीशों के पास आवश्यक नहीं है कि आर्थिक या सामाजिक मुद्दों पर जटिल नीतिगत निर्णय लेने के लिये आवश्यक विशेषज्ञता हो। इससे अनपेक्षित परिणामों के साथ अतार्किक नियम बन सकते हैं।
        • उदाहरण: मोहित मिनरल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2022) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि GST परिषद के फैसले राज्य सरकारों पर बाध्यकारी नहीं हैं।
          • इस निर्णय से व्यवसाय बाधित होने एवं कर प्रशासन में जटिलता आने के साथ GST के उचित लाभों को प्राप्त करने में व्यवधान हो सकता है।

    न्यायिक अतिरेक से लोकतंत्र कमज़ोर होता है, इसके विपक्ष में तर्क:

    • मूल अधिकारों की रक्षा: न्यायपालिका, संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। इन अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने की इसकी शक्ति व्यक्तियों को मनमाने सरकारी कृत्यों से बचाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
      • उदाहरण: उन्नीकृष्णन जेपी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों से अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार होने के साथ शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया गया।
        • यह निर्णय आगे चलकर शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के पारित होने का आधार बना।
    • सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिलना: न्यायपालिका समानता को बढ़ावा देने तथा वंचित समूहों की रक्षा करने वाले कानूनों की व्याख्या करके सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
      • उदाहरण: ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर स्थित समुदायों के लिये आरक्षण नीतियों को बढ़ावा देने वाले निर्णय सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में न्यायपालिका की भूमिका को उजागर करते हैं।
    • विधायिका की निष्क्रियता: कभी-कभी न्यायिक अतिरेक का संबंध महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कार्रवाई करने में विधायिका की विफलता से उत्पन्न होता है। इससे ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जहाँ न्यायपालिका इस कमी को पूरा करने के संदर्भ में भूमिका निभा सकती है, जिससे उचित हस्तक्षेप की सीमाएँ धुँधली हो जाती हैं।
      • उदाहरण: अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2023) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पूर्व, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा केंद्र सरकार की सिफारिश पर की जाती थी।
        • हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 324(2) के अनुसार संसद को इस संबंध में कानून बनाने का अधिकार मिला है।
        • इस फैसले के बाद, संसद ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित एक कानून पारित किया।

    निष्कर्ष:

    न्यायिक अतिरेक वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के लिये खतरा बन सकता है। हालाँकि पूरी तरह से नियंत्रित न्यायपालिका की अधिकारों के रक्षक एवं सत्ता पर नियंत्रण के रूप में भूमिका कमज़ोर होती है। शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान करते हुए न्यायिक सक्रियता एवं अतिरेक के बीच संतुलन बनाना एक जीवंत भारतीय लोकतंत्र के लिये आवश्यक है।

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