- फ़िल्टर करें :
- भूगोल
- इतिहास
- संस्कृति
- भारतीय समाज
-
प्रश्न :
क्षेत्रवाद द्वारा राष्ट्रीय एकता एवं शासन के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को बताते हुए राजनीतिक स्थिरता एवं सामाजिक-आर्थिक विकास पर इसके प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
06 May, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाजउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- क्षेत्रवाद को परिभाषित करते हुए परिचय लिखिये।
- क्षेत्रवाद से उत्पन्न चुनौतियों का उल्लेख कीजिये।
- राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक-आर्थिक विकास पर क्षेत्रवाद के निहितार्थों पर गहराई से विचार कीजिये।
- क्षेत्रवाद से निपटने के उपाय सुझाइये।
- क्षेत्रीय एकीकरण का सुझाव देते हुए एक सकारात्मक टिप्पणी के साथ निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
क्षेत्रवाद का तात्पर्य प्रायः राष्ट्रीय हितों से परे क्षेत्र या राज्य के प्रति अतिरंजित लगाव से है। इसमें अक्सर क्षेत्र की अद्वितीय सांस्कृतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक या भौगोलिक विशेषताओं के आधार पर अधिक स्वायत्तता, नियंत्रण या निर्णय लेने की शक्ति का समर्थन करना शामिल है।
मुख्य भाग:
क्षेत्रवाद द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ:
- स्वायत्तता/अलगाववाद की मांग: क्षेत्रवाद अधिक स्वायत्तता या यहाँ तक कि अलगाव की मांग को बढ़ावा दे सकता है, जैसा कि पंजाब (खालिस्तान आंदोलन) और पूर्वोत्तर (नागा विद्रोह, बोडोलैंड आंदोलन) जैसे राज्यों में देखा गया है, जिससे राष्ट्रीय एकता एवं क्षेत्रीय अखंडता को खतरा है।
- जातीय/भाषायी संघर्ष: जातीयता या भाषा के आधार पर क्षेत्रीय पहचान का दावा संघर्ष को जन्म दे सकता है, जैसा कि मणिपुर (कुकी-मैतेई संघर्ष), असम (बोडो-बंगाली संघर्ष), श्रीलंका (तमिल अल्पसंख्यक मुद्दा) में देखा गया है।
- सत्ता-साझाकरण के मुद्दे: क्षेत्रवाद केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता-साझाकरण को जटिल बना देता है, जिससे प्रायः संसाधन आवंटन, नीति कार्यान्वयन का विरोध होता है, जैसा कि केंद्र तथा तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवादों में देखा गया है।
- नीति कार्यान्वयन में बाधाएँ: सत्ता में क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय हितों पर क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे केंद्र सरकार द्वारा नीतियों और कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा आ सकती है।
- उदाहरण के लिये जैसे कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को कुछ राज्यों में विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
- नौकरशाही का राजनीतिकरण: अधिक प्रतिनिधित्व और स्वायत्तता की मांग से क्षेत्रीय आधार पर नौकरशाही एवं शासन संरचनाओं का राजनीतिकरण हो सकता है, जैसा कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में देखा गया है।
क्षेत्रवाद के निहितार्थ:
- राजनीतिक स्थिरता:
- बार-बार चुनाव और अस्थिर सरकारें: क्षेत्रीय दलों के उदय से केंद्र में खंडित जनादेश, लगातार चुनाव एवं अस्थिर गठबंधन सरकारें हो सकती हैं, जिससे दीर्घकालिक नीति योजना और कार्यान्वयन में बाधा आ सकती है, जैसा कि वर्ष 1990 के दशक के अंत में केंद्र में लगातार सरकार में परिवर्तन देखा गया था।
- कानून और व्यवस्था के मुद्दे: क्षेत्रवाद विरोध प्रदर्शनों, आंदोलनों और कानून व्यवस्था के मुद्दों को बढ़ावा दे सकता है, जिससे संभावित रूप से राज्य प्राधिकरण का क्षरण एवं केंद्रीय बलों का दुरुपयोग हो सकता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड आंदोलन के दौरान देखा गया था।
- बाहरी हस्तक्षेप: सीमा पार जातीय या भाषायी संबंधों वाले क्षेत्र बाहरी हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं, जिससे राष्ट्र के लिये सुरक्षा चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जैसा कि पूर्वोत्तर विद्रोह में चीन और म्याँमार के कथित प्रभाव में देखा गया है।
- सामाजिक-आर्थिक विकास:
- असमान विकास: क्षेत्रवाद संसाधनों के असमान वितरण का कारण बन सकता है, जिससे विकास संबंधी असमानताएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जैसा कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में देखा गया है, जहाँ कुछ क्षेत्र अधिक विकसित हैं जबकि अन्य इससे उपेक्षित हैं।
- प्रतिभा पलायन: कथित भेदभाव कुछ क्षेत्रों से कुशल पेशेवरों के प्रवास को गति दे सकता है, जिससे प्रतिभा पलायन हो सकता है जैसा कि केरल राज्य में देखा गया है।
क्षेत्रवाद से निपटने के उपाय:
- शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना: एकता, विविधता और राष्ट्रीय गौरव पर ज़ोर देने के लिये स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रमों को संशोधित करना, एक भारत श्रेष्ठ भारत जैसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों को बढ़ावा देना तथा राष्ट्रीय एकता यात्रा जैसी पहल के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में छात्र संवाद को प्रोत्साहित करना।
- संतुलित क्षेत्रीय विकास: संसाधनों को समान रूप से आवंटित करके आर्थिक असमानताओं को दूर करना, आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे अविकसित क्षेत्रों में केंद्रीय संस्थान स्थापित करना तथा वंचित ज़िलों के लिये विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना।
- सहकारी संघवाद को मज़बूत करना: राज्यों को वित्तीय स्वायत्तता के साथ सशक्त बनाना, नीति आयोग और अंतर-राज्य परिषद जैसे निकायों के माध्यम से सहयोगात्मक नीति-निर्माण में संलग्न होना।
- प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: शासन के लिये प्रगति जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म को अपनाना और CPGRAMS के माध्यम से वास्तविक समय पर शिकायत निवारण प्रदान करना, केंद्र एवं दूरदराज़ के क्षेत्रों के बीच कनेक्टिविटी को बढ़ाना।
- सांस्कृतिक कूटनीति: राष्ट्रीय सांस्कृतिक त्योहारों के माध्यम से विविधता को अपनाना, देखो अपना देश जैसे अभियानों के माध्यम से अंतर-क्षेत्रीय पर्यटन को बढ़ावा देना और प्रवासी भारतीय दिवस जैसे आयोजनों के माध्यम से अंतर-सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देना।
- सुचारु अंतर-क्षेत्रीय गतिशीलता: भाषायी और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करना, केंद्रीय संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना तथा राष्ट्रीय कॅरियर सेवा के माध्यम से अंतर-क्षेत्रीय गतिशीलता एवं नौकरी के अवसरों को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष:
राष्ट्रीय हितों के साथ क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संतुलित करना भारत की स्थिरता, सामाजिक सद्भाव और समावेशी विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसमें राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देना, संवाद एवं विकेंद्रीकरण के माध्यम से क्षेत्रीय मुद्दों को संबोधित करना तथा क्षेत्रवाद की चुनौतियों से निपटने के लिये सहकारी संघवाद को अपनाना शामिल है।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print