भारत में स्वतंत्रता के पश्चात केंद्र-राज्य संबंधों के विकास पर चर्चा कीजिये। संवैधानिक प्रावधानों एवं न्यायिक व्याख्याओं ने इन संबंधों को किस प्रकार प्रभावित किया है? (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में केंद्र-राज्य संबंधों का परिचय देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- स्वतंत्रता के बाद भारत में केंद्र-राज्य संबंधों के विकास पर चर्चा कीजिये।
- इन संबंधों को प्रभावित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों एवं न्यायिक व्याख्याओं पर प्रकाश डालिये।
- उचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारत में स्वतंत्रता के बाद केंद्र-राज्य संबंध निर्णायक रूप से विकसित हुए हैं, जो ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं संवैधानिक कारकों की जटिल परस्पर क्रिया को दर्शाते हैं। भारत के संविधान द्वारा 7वीं अनुसूची और उसके बाद की न्यायिक व्याख्याओं जैसे प्रावधानों के माध्यम से, इन संबंधों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गई है।
मुख्य भाग:
केंद्र-राज्य संबंधों का विकास:
- स्वतंत्रता-पूर्व काल:
- ब्रिटिश शासन के दौरान, भारत एकात्मक राज्य था जिसमें सत्ता का केंद्रीकरण था।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा केंद्र एवं प्रांतों के लिये अलग-अलग शक्तियों के साथ संघीय विशेषताओं को लागू किया गया, जिससे भविष्य के केंद्र-राज्य संबंधों की नींव रखी गई।
- स्वतंत्रता के बाद की अवधि (1947-1966):
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने भारतीय संविधान का आधार तैयार किया, जिसमें एक मज़बूत केंद्र के साथ संघीय ढाँचे को अपनाया गया।
- संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन का उल्लेख किया गया, जिसमें तीन सूचियाँ- संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची शामिल हैं।
- नेहरूवादी काल (1947-1964):
- जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के लिये एक मज़बूत केंद्र की वकालत की।
- योजना आयोग की स्थापना, आर्थिक नियोजन को बढ़ावा देने के लिये की गई थी, जिससे आर्थिक निर्णय लेने का केंद्रीकरण हुआ।
- भाषाई पुनर्गठन का काल (1956-1966):
- वर्ष 1953 में सरकार ने भाषाई आधार पर विभिन्न राज्यों की विभाजन की मांगों की जाँच और समाधान करने के लिये फज़ल अली आयोग का गठन किया था।
- इस आयोग की सिफारिश के आधार पर, राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 प्रस्तुत किया गया, जो भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन में महत्त्वपूर्ण कदम था।
- इस अवधि में भाषाई राज्यों तथा केंद्र के बीच भाषा, संस्कृति एवं पहचान के मुद्दों पर तनाव देखा गया।
- राजनीतिक उथल-पुथल की अवधि (1967-1984):
- वर्ष 1967 के आम चुनावों के परिणामस्वरूप कई राज्यों में गैर-कॉन्ग्रेसी सरकारों का उदय हुआ, जिससे केंद्र-राज्य की गतिशीलता में बदलाव आया।
- सरकारिया आयोग (1983) का गठन, सहकारी संघवाद की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए केंद्र-राज्य संबंधों में बदलावों की जाँच और सिफारिश करने के लिये किया गया था।
- आर्थिक सुधारों का काल (1991-वर्तमान):
- वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण के कारण केंद्र एवं राज्यों के बीच राजकोषीय संबंधों में बदलाव आया।
- वर्ष 2015 में योजना आयोग के स्थान पर नीति आयोग के गठन ने सहकारी संघवाद की ओर बदलाव का संकेत दिया।
संवैधानिक प्रावधानों और न्यायिक व्याख्याओं का प्रभाव:
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 245-255 केंद्र एवं राज्यों के बीच विधायी संबंधों को परिभाषित करते हुए शक्तियों का विभाजन सुनिश्चित करते हैं।
- अनुच्छेद 256-263 में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग तथा समन्वय पर बल देते हुए कार्यकारी संबंधों का विवरण शामिल है।
- अनुच्छेद 356 संवैधानिक विफलता की स्थिति में राज्यों में राष्ट्रपति शासन से संबंधित है।
- न्यायिक व्याख्याएँ:
- सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या और स्पष्टीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) जैसे ऐतिहासिक मामले ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग और राज्यों की स्वायत्तता के संबंध में सिद्धांत स्थापित किये हैं।
समसामयिक मुद्दे एवं सुझाव:
- वस्तु एवं सेवा कर (GST): GST का कार्यान्वयन राजकोषीय संघवाद में महत्त्वपूर्ण बदलाव का संकेतक है, जिसका लक्ष्य कराधान को सुव्यवस्थित करना है, लेकिन इसके साथ ही राजस्व बँटवारे एवं राज्यों की स्वायत्तता पर बहस भी शुरू हो गई है।
- अंतर-राज्यीय जल विवाद: जल, राज्य का विषय है, नदी जल-बँटवारे पर विवाद से केंद्र-राज्य संबंधों में जटिलताएँ बढ़ी हैं, जिनके समाधान के लिये अक्सर केंद्रीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून प्रवर्तन: आतंकवाद एवं आंतरिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर केंद्र तथा राज्यों के बीच समन्वय की आवश्यकता होती है, जिससे कभी-कभी अधिकार क्षेत्र तथा नियंत्रण के संबंध में तनाव पैदा हो जाता है।
निष्कर्ष:
भारत में केंद्र-राज्य संबंधों का विकास ऐतिहासिक, राजनीतिक और संवैधानिक कारकों से प्रभावित एक गतिशील प्रक्रिया को दर्शाता है। संविधान ने इन संबंधों के लिये एक रूपरेखा प्रदान की है लेकिन न्यायिक व्याख्याओं ने केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति की सीमाओं को स्पष्ट तथा परिभाषित करने में मदद की है। चूँकि भारत एक संघीय लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है, इसलिये यह आवश्यक है।