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प्रश्न :
क्या भारत अपनी क्षेत्रीय भूमिका को फिर से परिभाषित कर रहा है? तर्क सहित विश्लेषण कीजिये।
14 Jun, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 अंतर्राष्ट्रीय संबंधउत्तर :
प्रश्न-विच्छेद
- भारत द्वारा अपनी क्षेत्रीय भूमिका को फिर से परिभाषित करने का तर्क सहित विश्लेषण करना है।
हल करने का दृष्टिकोण
- प्रभावी भूमिका लिखते हुए भारत की विदेश नीति का संक्षिप्त परिचय लिखें, साथ ही विदेश नीति के संबंध में किये गए महत्त्वपूर्ण बदलावों को बताएँ।
- तार्किक तथा संतुलित विषय-वस्तु में विदेश नीति के संबंध में भारत द्वारा अपनी भूमिका में किये गए बदलाव का विश्लेषण करें, इसमें शांगरी-ला वार्ता का उल्लेख करें।
- प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।
विदेश नीति के मामले में हाल ही में सरकार द्वारा उठाए गए कदम एक महत्त्वपूर्ण बदलाव की ओर संकेत करते हैं। 21वीं शताब्दी में व्यावहारिकता के साथ शीतयुद्ध युग के रूढि़वादी विचारों के मिश्रण से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ने मान लिया है कि विदेश नीति के लिये जिन द्वि-आधारी विकल्पों और आसान समाधानों की कल्पना की गई थी, वे सस उभरती हुई बहु-ध्रुवीय दुनिया में बहुत अधिक जटिल होती जा रही हैं।
इस संदर्भ में भारत ने न केवल हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र के लिये अपने दृष्टिकोण को नए रूप में प्रस्तुत किया है बल्कि यह यूरेशिया महाद्वीप के साथ गहरे और अधिक रचनात्मक संबंध भी स्थापित कर रहा है। इस प्रयास को सिंगापुर में आयोजित शांगरी-ला वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री के भाषण के रूप में देखा जा सकता है। इस भाषण पर चार विषयों का प्रभुत्व था जो कि सामूहिक रूप से विकसित विदेश नीति को दर्शाता है।
प्रधानमंत्री के भाषण का केंद्रीय विषय था कि एक समय जब दुनिया सत्ता परिवर्तन, अनिश्चितता और भू-गर्भीय विचारों तथा राजनीतिक मॉडल पर प्रतिस्पर्द्धा का सामना कर रही होगी तो भारत खुद को एशिया में एक स्वतंत्र शक्ति और अभिनेता के रूप में प्रस्तुत करेगा। इस भाषण में प्रधानमंत्री मोदी के तीन महान शक्तियों के साथ भारत के संबंधों का वर्णन किया, इसमें जहाँ रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका को साझेदार के रूप में प्रस्तुत किया वहीं, भारत-चीन संबंधों को ‘कई परत युक्त’ जैसे जटिल शब्दों द्वारा चित्रित किया गया, लेकिन एक सकारात्मक प्रच्छन्न भाव के साथ यह भी स्पष्ट किया कि इस संबंध में स्थिरता भारत तथा विश्व के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही सभी प्रमुख देशों के लिये लक्षित संकेत यह था कि भारत कुछ सीमित राष्ट्रों के समूह या किसी गुट में समूची भारतीय शक्ति के रूप में शामिल नहीं होगा बल्कि अपनी क्षमता तथा विचारों के आधार पर अपने मार्ग का निर्धारण स्वयं करेगा। अर्थात् भारत किसी भी ऐसे राजनीतिक सैन्य शिविर का हिस्सा नहीं बनेगा जहाँ रणनीतिक तथा नीति निर्माण में इसकी भूमिका अत्यंत कम हो।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका अब चीन केंद्रस्थ के रूप में परिकल्पित नहीं है, क्योंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र को भारत अब किसी रणनीति या सीमित सदस्यों वाले किसी क्लब के रूप में नहीं देखता और न ही किसी ऐसे समूह के रूप में जो अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।
अतः भारत इस क्षेत्र में और उससे परे कई साझेदारियाँ करेगा तथा सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति वफादार रहेगा जो कि समावेश, विविधता और निश्चित रूप से अपने हितों पर जोर देते हैं।
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