भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों एवं क्रांतिकारियों की भूमिका पर इसके प्रभाव का परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार आंदोलन के बारे में एक परिचय लिखिये।
- प्रारंभिक राष्ट्रवादियों पर इसके प्रभाव का उल्लेख कीजिये।
- क्रांतिकारियों की भूमिका का उल्लेख कीजिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
20वीं सदी की शुरुआत में भारत में प्रारंभ हुए स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आंदोलन वर्ष 1905 में ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा बंगाल के विभाजन का परिणाम था।
मुख्य भाग:
स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने प्रारंभिक राष्ट्रवादियों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया और भारतीयों के बीच प्रतिरोध तथा एकता को बढ़ावा दिया:
आर्थिक आत्मनिर्भरता (स्वदेशी):
- स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देना: स्वदेशी आंदोलन का उद्देश्य भारत निर्मित वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा देना और ब्रिटिश निर्मित उत्पादों का बहिष्कार करना था। इसे स्वदेशी उद्योगों को पुनर्जीवित करने तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने की रणनीति के रूप में देखा गया।
- राष्ट्रवादी चेतना: स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहित करके आंदोलन ने भारतीय आबादी के बीच राष्ट्रवादी चेतना की भावना उत्पन्न की। यह ब्रिटिश आर्थिक शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध का प्रतीक बन गया।
- प्रमुख हस्तियाँ: बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने स्वदेशी आंदोलन का सक्रिय रूप से समर्थन एवं प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने राष्ट्रवाद के आर्थिक पहलू तथा आत्मनिर्भरता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार:
- विरोध का प्रतीक: ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार ने दमनकारी औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध एक शक्तिशाली साधन के रूप में कार्य किया था। भारतीयों ने औपनिवेशिक शासन की प्रतीकात्मक अस्वीकृति के रूप में ब्रिटिश निर्मित उत्पादों को खरीदने और उनका उपयोग करने से परहेज किया।
- सामूहिक भागीदारी: आंदोलन में छात्रों, किसानों और शहरी मध्यम वर्ग के व्यक्तियों की व्यापक भागीदारी देखी गई, जिसने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को एक व्यापक, क्रॉस-सेक्शनल जन आंदोलन में बदल दिया।
- ब्रिटिश अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: बहिष्कार का ब्रिटिश अर्थव्यवस्था पर ठोस प्रभाव पड़ा। इससे भारत में ब्रिटिश वस्तुओं की बिक्री में गिरावट आई, जिससे औपनिवेशिक अधिकारियों को भारतीय आबादी के बीच बढ़ते असंतोष पर ध्यान देने के लिये मजबूर होना पड़ा।
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों पर प्रभाव:
- राष्ट्रवादियों के बीच एकता: स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने विभिन्न राजनीतिक समूहों और व्यक्तियों को एक सामान्य उद्देश्य के तहत एकजुट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने एक एकीकृत राष्ट्रवादी आंदोलन के उद्भव को चिह्नित किया।
- राजनीतिक जागरुकता: इस आंदोलन ने जनता को राजनीतिक रूप से जागरुक करने में योगदान दिया। परिणामस्वरूप लोग राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे, जिससे स्वशासन की मांग ने ज़ोर पकड़ा।
- सविनय अवज्ञा के बीज: स्वदेशी आंदोलन के दौरान अपनाए गए विरोध के तरीकों, जिनमें असहयोग और अहिंसक प्रतिरोध शामिल थे, ने भविष्य के अभियानों के लिये आधार तैयार किया, जिसमें महात्मा गांधी द्वारा स्थापित सविनय अवज्ञा आंदोलन भी शामिल है।
क्रांतिकारियों की भूमिका:
- आंदोलन शुरुआत में अहिंसक प्रतिरोध पर केंद्रित था, इसने राष्ट्रवादी आंदोलन के कुछ गुटों के बीच अधिक कट्टरपंथी और क्रांतिकारी आवेग को बढ़ावा दिया।
- शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों की स्पष्ट अप्रभाविता से उठी निराशा के कारण अनुशीलन समिति और जुगंतार जैसे अधिक उग्रवादी क्रांतिकारी समूहों का उदय हुआ, जिन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध का समर्थन किया।
निष्कर्ष:
स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने और राजनीतिक जागरूकता को आकार देने में एक महत्त्वपूर्ण अवधि को चिह्नित किया। इसने एक बड़े राष्ट्रवादी आंदोलन के लिये मंच तैयार किया, जिसकी परिणति वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के रूप में देखी गई।