संजातीय पहचान एवं सांप्रदायिकता पर उत्तर-उदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रभाव की विवेचना कीजिये। (250 शब्द, UPSC मुख्य परीक्षा 2023)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर-उदारवादी अर्थव्यवस्था की अवधारणा के बारे में एक संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- उल्लेख कीजिये कि उत्तर-उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जातीय पहचान एवं सांप्रदायिकता को किस प्रकार प्रभावित किया।
- उचित निष्कर्ष लिखिये।
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भारत में उत्तर-उदारवादी अर्थव्यवस्था की अवधारणा, 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुए आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की विशेषता ने वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में, विशेष रूप से जातीय पहचान तथा सांप्रदायिकता पर इसके प्रभाव के संबंध में एक जटिल एवं बहुआयामी घटना को जन्म दिया है।
जातीय पहचान पर प्रभाव:
सकारात्मक:
- आर्थिक सशक्तीकरण: आर्थिक अवसरों तक पहुँच में वृद्धि ने विभिन्न जातीय पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करने की अनुमति दी है।
- सांस्कृतिक विनियमन: उदारवाद के बाद की अर्थव्यवस्था ने व्यापार, पर्यटन और कनेक्टिविटी में वृद्धि के कारण अधिक सांस्कृतिक विनियमन की सुविधा प्रदान की है, जिससे अंतर-सांस्कृतिक समझ बढ़ी है।
- उद्यमिता और क्षेत्रीय पहचान: आर्थिक उदारीकरण ने उद्यमिता को प्रोत्साहित किया है, जिससे विशिष्ट जातीय पहचान वाले क्षेत्रों को अपने अद्वितीय उत्पादों एवं परंपराओं को बढ़ावा देने की अनुमति मिली है।
नकारात्मक:
- आर्थिक असमानताएँ: जातीय समूहों में आर्थिक विकास एक समान नहीं रहा है, जिससे आय में असमानता की स्थिति पैदा हुई है और कुछ समुदायों को हाशिये पर धकेल दिया गया है।
- सांस्कृतिक समरूपीकरण: उदारीकरण के माध्यम से वैश्विक उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार पारंपरिक जातीय रीति-रिवाज़ों और पहचान को नष्ट कर सकता है।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: आर्थिक उदारीकरण कुछ क्षेत्रों में धन और विकास को केंद्रित कर सकता है, जिससे अन्य लोग आर्थिक रूप से वंचित रह जाएंगे।
सांप्रदायिकता पर प्रभाव:
सकारात्मक:
- शहरीकरण और प्रवासन: सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देना और सांप्रदायिकता के प्रभाव को कम करना।
- शिक्षा और जागरूकता: बेहतर शिक्षा एवं सूचना तक पहुँच एक अधिक सूचित तथा सहिष्णु समाज को बढ़ावा दे सकती है, जिससे सांप्रदायिक तनाव कम हो सकता है।
नकारात्मक:
- मीडिया और प्रौद्योगिकी: इसे विभाजनकारी विचारधाराओं का प्रचार करने तथा सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।
- ग्रामीण-शहरी विभाजन: आर्थिक उदारीकरण से ग्रामीण-शहरी विभाजन हो सकता है, इससे ग्रामीण इलाकों के लोग पीछे छूट जाने की स्थिति महसूस कर सकते हैं, जिससे संभावित रूप से सांप्रदायिक भावनाएँ भड़क सकती हैं।
- उपभोक्तावाद: उपभोक्तावाद से जुड़े भौतिकवादी मूल्य सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों पर हावी हो सकते हैं, जो सामुदायिक एकजुटता में रुकावट का कारण बन सकता है।
इसलिये जहाँ एक ओर उत्तर उदारवादी अर्थव्यवस्था ने देश को विकास और समृद्धि के युग में प्रवेश कराया है, वहीं दूसरी ओर जातीय पहचान तथा सांप्रदायिकता पर इसके प्रभाव ने नई खामियाँ पैदा कर दी हैं। प्रस्तावना में उल्लिखित भाईचारे के मूल्य का पालन करते हुए इससे निपटने की आवश्यकता है।