उन प्रणालियों पर चर्चा कीजिये जिनके माध्यम से भारतीय संविधान द्वारा कार्यकारी, विधायी एवं न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था की गई है। मूल्यांकन कीजिये कि यह पृथक्करण भारतीय संदर्भ में संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में किस प्रकार कार्य करता है। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा और लोकतांत्रिक प्रणाली में इसके महत्त्व का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- उन विशिष्ट तंत्रों का विस्तार से वर्णन कीजिये जिनके माध्यम से शक्तियों के पृथक्करण की प्रणाली स्थापित की जाती है।
- आप लोकतंत्र के सिद्धांतों और विधि के शासन को बनाए रखने में इस प्रणाली के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए निष्कर्ष दे सकते हैं।
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परिचय:
वर्ष 1950 में अपनाया गया भारतीय संविधान कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण की नींव रखता है। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संसदीय संप्रभुता को संतुलित करने के रूप में कार्य करता है, शक्ति संतुलन सुनिश्चित करता है और किसी एक शाखा को अत्यधिक प्रभावशाली बनने से रोकता है।
मुख्य भाग:
वह तंत्र जिसके माध्यम से भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण की प्रणाली स्थापित करता है:
- विधायी नियंत्रण:
- न्यायपालिका पर: महाभियोग और न्यायाधीशों को हटाना। न्यायालय द्वारा अधिकारातीत घोषित किये गये कानूनों में संशोधन करने और उसे पुनः वैध करने की शक्ति।
- कार्यपालिका पर: अविश्वास मत के माध्यम से इसके द्वारा सरकार को भंग किया जा सकता है। प्रश्नकाल एवं शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का मूल्यांकन करने की शक्ति।
- कार्यकारी नियंत्रण:
- न्यायपालिका पर: मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ।
- विधायिका पर: प्रत्यायोजित विधान के तहत शक्तियाँ। संविधान के प्रावधानों के अधीन अपनी संबंधित प्रक्रिया और व्यवसाय के संचालन को विनियमित करने के लिये नियम बनाने का अधिकार।
- न्यायिक नियंत्रण:
- कार्यपालिका पर: न्यायिक समीक्षा यानी, कार्यकारी कार्रवाई की समीक्षा करने की शक्ति, यह निर्धारित करने के लिये कि क्या यह संविधान का उल्लंघन करती है।
- विधायिका पर: केशवानंद भारती मामला, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए मूल ढाँचा सिद्धांत के तहत संविधान की अपरिवर्तनीयता।
- शक्तियों का यह पृथक्करण संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में कैसे कार्य करता है:
- संसदीय संप्रभुता बनाम न्यायिक समीक्षा:
- भारत में, संसदीय संप्रभुता सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति के अधीन है। यदि न्यायपालिका को संसद द्वारा पारित कोई कानून असंवैधानिक लगता है, तो उसे रद्द किया जा सकता है। यह संसद की पूर्ण संप्रभुता को सीमित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि यह संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के तहत संचालित हो।
- कार्यकारी जवाबदेहिता:
- कार्यकारी शाखा, विधायिका के प्रति जवाबदेह है और विधायिका बदले में लोगों के प्रति जवाबदेह है। यह जवाबदेही कार्यपालिका को अनियंत्रित शक्ति का प्रयोग करने से रोकती है और यह सुनिश्चित करती है कि वह कानून के दायरे में कार्य करे।
- द्विसदनीय विधानमंडल:
- भारतीय संसद में राज्यसभा और लोकसभा की अलग-अलग संरचना और भूमिकाओं से किसी भी सदन के जल्दबाजी वाले या एकतरफा निर्णयों को रोका जा सकता है।
निष्कर्ष:
संविधान, शक्तियों के पृथक्करण की प्रणाली स्थापित करता है जो संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में कार्य करती है। यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की कोई भी एक शाखा अधिक प्रभावी नहीं हो सकती है और प्रत्येक शाखा विधि के शासन को बनाए रखने तथा नागरिकों के अधिकारों एवं स्वतंत्रता की रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस प्रणाली से एक संतुलित एवं जवाबदेह सरकारी तंत्र को बढ़ावा मिलता है जिससे लोकतंत्र के सिद्धांतों और विधि के शासन को स्थापित किया जा सकता है।