"भारतीय संविधान का निर्माण इस आधार पर नहीं हुआ था कि लोग कैसे हैं बल्कि इस आधार पर हुआ था कि उन्हें कैसा होना चाहिये"। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उपर्युक्त कथन का संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- संविधान में निहित उन आदर्शों और सिद्धांतों पर चर्चा कीजिये जो इसके निर्माताओं के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- आप इस बात पर बल देकर निष्कर्ष दे सकते हैं कि चुनौतियों के बावजूद संविधान ने भारत के आदर्श भविष्य के मार्गदर्शन में भूमिका निभाई है, जिससे यह एक गतिशील और दूरदर्शी दस्तावेज़ बन जाता है।
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परिचय:
संविधान निर्माता भारतीय समाज की वास्तविकताओं और चुनौतियों से अवगत थे, जिसमें गरीबी, अशिक्षा, असमानता आदि की विद्यमानता थी। वे ऐसा संविधान नहीं बनाना चाहते थे जो केवल मौजूदा स्थितियों को प्रतिबिंबित करे बल्कि ऐसा संविधान बनाना चाहते थे जो बदलाव पर केंद्रित हो। वे एक ऐसा संविधान बनाना चाहते थे जो लोगों को अपनी क्षमता का एहसास कराने के साथ राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया में भाग लेने में उन्हें सक्षम बनाए।
मुख्य भाग:
इसलिये संविधान में उन लक्ष्यों और मूल्यों को शामिल किया गया जिनके लिये भारत के लोगों को प्रयासरत रहना चाहिये जैसे:
- अधिकार और समानता: संविधान द्वारा सभी नागरिकों को उनकी मौजूदा परिस्थितियों के बावजूद मूल अधिकार दिये गए हैं, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों को भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय से बचाना है। इन अधिकारों का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ व्यक्तियों को अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की स्वतंत्रता हो और वे अपनी मौजूदा परिस्थितियों में बंधे रहने को मजबूर न हों।
- आर्थिक न्याय: संविधान में शामिल राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भी आर्थिक न्याय की आकांक्षा को दर्शाते हैं। संविधान द्वारा समाज में व्याप्त आर्थिक असमानताओं को दूर करने के क्रम में राज्य को आर्थिक एवं सामाजिक न्याय को बढ़ावा देकर इन असमानताओं को कम करने की दिशा में कार्य करने हेतु निर्देशित किया गया है।
- सामाजिक परिवर्तन: भारतीय संविधान के निर्माताओं ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जहाँ जातिगत और लैंगिक भेदभाव के साथ असमानता न हो। इसलिये संविधान में ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के लिये सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण जैसे प्रावधान शामिल किये गए हैं।
- पंथनिरपेक्षता: भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता पर बल दिया गया है। इसमें एक ऐसे समाज की कल्पना की गई है जहाँ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाता हो और जिसमें राज्य किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेता हो। यह मूल्य स्वतंत्रता के समय प्रचलित धार्मिक पदानुक्रमों के विपरीत है।
- लोकतांत्रिक मूल्य: सहभागी और समावेशी लोकतंत्र को बढ़ावा देने के उद्देश्य से संविधान में लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे विधि के समक्ष समता और सार्वभौमिक मताधिकार जैसे मूल्यों को शामिल किया गया है। इसमें एक ऐसे समाज की कल्पना की गई है जहाँ सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना सभी नागरिकों का सम्मान किया जाता है।
निष्कर्ष:
इसलिये, भारतीय संविधान एक स्थिर या कठोर दस्तावेज़ होने के बजाय गतिशील और लचीला दस्तावेज़ है, जो लोगों की बदलती ज़रूरतों और आकांक्षाओं के अनुकूल है। संविधान कोई अंतिम या आदर्श दस्तावेज़ नहीं है बल्कि एक प्रगतिशील और दूरदर्शी दस्तावेज़ है, जो लोगों को अपने लक्ष्यों एवं मूल्यों की प्राप्ति के लिये कार्य करने हेतु प्रेरित कर सकता है।