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प्रश्न :
भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के महत्त्व एवं सीमाओं का उल्लेख करें। क्या इसे भारतीय पुनर्जागरण माना जा सकता है?
06 Jan, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन के महत्त्व एवं सीमाओं का उल्लेख करें।
- यूरोपीय पुनर्जागरण से तुलना करते हुए बताएं कि किन अर्थों में इसे पुनर्जागरण मन जा सकता है।
पाश्चात्य शिक्षा तथा यूरोप की पुनर्जागरणवादी मान्यताओं के प्रचार से भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी तर्कवाद तथा मानवतावादी प्रवृत्ति का प्रसार हुआ और उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करना शुरू किया। चूँकि भारतीय समाज की अधिकांश कुरीतियाँ धार्मिक अंधविश्वास से जुडी थी इसलिये मानवतावाद पर आधारित यह आंदोलन भारत में सामाजिक धार्मिक आंदोलन के रूप में उभरा।
सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन का महत्त्व
- अंग्रेजों द्वारा भारत पर शासन करने के नैतिक आधार को सुदृढ़ करने के लिये भारतीयों को अपराधी बताया जा रहा था, किंतु आंदोलन के नेताओं ने भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को सामने लाकर यह साबित कर दिया कि सभ्यता तथा नैतिकता के मामले में भारतीय किसी से पीछे नहीं हैं। इससे भारतीयों के आत्मसम्मान तथा आत्मविश्वास में वृद्धि हुई।
- आत्मसम्मान की यही भावना आगे चलकर राष्ट्रवादी तथा स्वतंत्रता वादी विचारों के रूप में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रोत्साहित करती रही।
- मानवतावाद पर बल दिये जाने के कारण धर्म तथा जातिगत आधार पर विभेद तथा छुआछूत की भावना में कमी आई और एकता की भावना में वृद्धि हुई।
- सामाजिक-धार्मिक विश्वासों को तोड़ने के लिये शिक्षा पर बल दिया जाने से देश में पत्र पत्रिकाओं का प्रसार हुआ और जन सामान्य की जागरूकता में वृद्धि हुई।
- इस आंदोलन के प्रणेता यह मानते थे कि जिस देश में महिलाएँ उपेक्षित हो वह देश सभ्यता के क्षेत्र में कभी भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकता। अतः महिलाओं की स्थिति में सुधार के व्यापक प्रयास किए गए। इसके परिणामस्वरुप 1829 में सती प्रथा को गैर-कानूनी बना दिया गया तथा विद्यासागर के प्रयासों से हिंदू विधवाओं के पुनर्विवाह हेतु 1856 में अधिनियम का निर्माण किया गया। साथ ही बाल विवाह का विरोध करते हुए महिला शिक्षा को बढ़ावा दिया गया।
आंदोलन की सीमाएँ
- सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन मुख्यतः नगरीय समाज की आवश्यकताओं से ही संचालित जय देश के गाँवों और किसानों तथा शहरों के गरीब लोगों तक पहुँच नहीं हो पाने के कारण आंदोलन का सामाजिक आधार व्यापक नहीं हो पाया।
- इसके अलावा अतीत की महानता पर अत्यधिक बल दिये जाने से सहज तार्किकता प्रभावित हुई।
- सामाजिक धार्मिक आंदोलन में मुख्यतः कर्मकांडों के ऊपर ही प्रहार किया गया जबकि इसमें गरीबी तथा बेरोजगारी जैसे समस्या के समाधान के प्रयासों का अभाव है। ये समाज की सबसे बड़ी समस्याओं में शामिल थे।
- इसके अलावा संस्कृति के कई क्षेत्रों जैसे-स्थापत्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।
- आंदोलन की एक सीमा यह थी कि यह आंदोलन भी स्वार्थवादी रुझानों ऊपर नहीं उठ पाया। उदाहरण के लिये भारतीय ब्रह्म समाज से जुड़े नेता केशवचंद्र सेन द्वारा बाल विवाह का विरोध किया गया था। किंतु उन्होंने अपनी 13 वर्षीय पुत्री की शादी कूच बिहार के राजा से कर दिया। इससे जनता के मन में आंदोलन के प्रति विश्वास घटा।
- इसके अलावा प्राचीन इतिहास पर अधिक बल दिये जाने से तथा मध्यकालीन इतिहास की उपेक्षा से संप्रदायवादी रुझानों का विकास हुआ। इसकी परिणीति भारत के विभाजन के रूप में देखी जा सकती है।
स्पष्ट है कि यूरोपीय पुनर्जागरण के वैज्ञानिक विकास, नई भौगोलिक खोजें, कला में विशेष प्रकति जैसे तत्त्व इन आंदोलनों में शामिल नहीं थे। किन्तु इन सीमाओं के कारण आंदोलन के महत्त्व को कम नहीं समझा जा सकता। वास्तव में इस आंदोलन से भारत में तर्कवादी और मानवतावादी चिंतन का प्रसार हुआ। अतार्किक धार्मिक अंधविश्वासों का आधार कमजो़र होने से तथा आत्मविश्वास एवं शिक्षा के प्रसार से अखिल भारतीय राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हुआ। इस रूप में इसे भारतीय पुनर्जागरण समझा जा सकता है। किन्तु भारत में विकास और जागरण की भावना यूरोप की तुलना में अधिक सतत् थी। साथ ही यहाँ का मध्यकाल यूरोप के समान व्यापक शोषण रूपी अंधकार की स्थिति से भी नहीं गुजरा था। अतः इसे पुनर्जागरण की तुलना में नवजागरण कहना अधिक उचित होगा।
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