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प्रश्न :
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न ऐतिहासिक फैसलों में राजद्रोह कानून की व्याख्या किस प्रकार की है? भारत में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इन फैसलों के प्रभावों का विश्लेषण कीजिये। क्या आपको लगता है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजद्रोह कानून वर्तमान में भी प्रासंगिक है? अपने उत्तर के कारण भी बताइये। (250 शब्द)
06 Jun, 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- परिचय: राजद्रोह कानून का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- मुख्य भाग: इसके संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्णयों पर चर्चा करते हुए इन निर्णयों के महत्त्व पर प्रकाश डालिये। इसके साथ ही इस कानून के संदर्भ में अपनी राय देते हुए इसकी विद्यमानता के कारणों पर चर्चा कीजिये।
- निष्कर्ष: राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
राजद्रोह का आशय कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा, अवमानना या असंतोष को बढ़ावा देने वाले भाषण या कार्यों को करने से है। इसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत परिभाषित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत प्रदत्त भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के उल्लंघन करने के कारण इस कानून पर प्रश्नचिन्ह लगता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयों में इस कानून की व्याख्या की है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राज्य की सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने हेतु दिशानिर्देश प्रदान किये हैं।
मुख्य भाग:
राजद्रोह से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के कुछ ऐतिहासिक निर्णय निम्नलिखित हैं:
- केदारनाथ सिंह बनाम भारत संघ (1962): इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा लेकिन स्पष्ट किया कि इसके तहत किसी पर कार्रवाई तभी हो सकती है जब उसके कार्यों से हिंसा को बढ़ावा मिलने के साथ सार्वजनिक अव्यवस्था हो। यदि इसमें घृणा एवं सरकार की अवमानना के साथ हिंसा शामिल नहीं है तो केवल सरकार की नीतियों की मात्र आलोचना या अस्वीकृति को राजद्रोह गतिविधियों के तहत शामिल नहीं किया जाएगा।
- श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015): इसमें आईटी अधिनियम की धारा 66A को असंवैधानिक तथा अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करने वाला घोषित किया गया था क्योंकि इसमें आपत्तिजनक ऑनलाइन भाषण को आपराधिक बनाया गया। न्यायालय ने यह भी दोहराया कि राजद्रोह कानून तभी लागू किया जा सकता है जब हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था का स्पष्ट खतरा हो।
- कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2016): इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिये दिशानिर्देश जारी किये थे। न्यायालय ने निर्देश दिया था कि किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना राजद्रोह के आधार पर FIR दर्ज नहीं की जानी चाहिये और कानून अधिकारी से कानूनी राय प्राप्त किये बिना इस संबंध में कोई चार्जशीट दायर नहीं की जानी चाहिये। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सरकार की नीतियों से असहमति एवं इनकी आलोचना करना, लोकतंत्र के लिये आवश्यक है और इसे राजद्रोह कानून लागू करके रोका नहीं जाना चाहिये।
भारत में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इन निर्णयों के प्रभाव:
- इससे राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया है लेकिन हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था को बढ़ावा देने के मामलों के संदर्भ में इसे सीमित किया गया है।
- जब तक लोगों के कार्यों से देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा नहीं होता है तब तक सरकार की नीतियों या कार्यों के खिलाफ बिना किसी डर के लोग अपनी राय और असहमति व्यक्त करने के लिये स्वतंत्र हैं।
- इससे सरकार और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को राजद्रोह कानून का इस्तेमाल करते समय संयम बरतने और जिम्मेदारी निभाने के लिये भी प्रेरित किया गया है।
निम्नलिखित कारणों से भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राजद्रोह कानून प्रासंगिक नहीं है:
- राजद्रोह कानून से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कमजोर होती है।
- लोगों की अभिव्यक्ति को राजद्रोह के नाम पर दबाकर सरकार की नीतियों के प्रति असंतोष और विरोध को निष्क्रिय किया जा सकता है।
- राजद्रोह कानून का अक्सर अधिकारियों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है।
- इससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में नागरिकों की भागीदारी पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- राजद्रोह कानून औपनिवेशिक विरासत है जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिये किया था। लोकतंत्र, बहुलवाद और मानवाधिकारों पर केंद्रित स्वतंत्र भारत में इसका कोई स्थान नहीं है।
वर्तमान में देश विरोधी और अलगाववादी तत्व मौजूद होने के कारण सुधार के साथ यह कानून वर्तमान में भी प्रासंगिक है जैसे:
- राजद्रोह को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए एवं इसके दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा उपाय प्रदान किये जाने चाहिये।
- हाल ही में विधि आयोग ने "हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था उत्पन्न करने की प्रवृत्ति" जैसे शब्दों को जोड़कर इसमें केदारनाथ मामले के दिशानिर्देशों को शामिल करने का सुझाव दिया है।
- राजद्रोह के तहत सजा को आजीवन कारावास से कम करना चाहिये।
- अधिकार के रूप में जमानत के प्रावधान के साथ इस संदर्भ में त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करनी चाहिये।
- विधि आयोग के सुझाव को कानून में शामिल किया जाना चाहिये जिसमें कहा गया है कि पत्रकारों, शिक्षाविदों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा किये जाने वाले सकारात्मक कार्यों को सुरक्षा प्रदान की जाए।
- “जब तक कि एक पुलिस अधिकारी (जो इंस्पेक्टर के पद से नीचे नहीं हो) द्वारा प्रारंभिक जाँच नहीं कर ली जाती है तब तक राजद्रोह के तहत कोई FIR दर्ज नहीं की जानी चाहिये।
- हिंसा या घृणा को भड़काने वाले कृत्यों से बचने के लिये नागरिक जागरूकता एवं अधिकारों को बढ़ावा देने के साथ भाषण की स्वतंत्रता का जिम्मेदारी से उपयोग करने पर बल देना चाहिये।
निष्कर्ष:
अंततः भारत में राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता का मूल्यांकन, इसके दुरुपयोग की संभावना तथा भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इसके प्रभाव के आलोक में किया जाना चाहिये। भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करना आवश्यक है।
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