जल्लीकट्टू जैसी सामाजिक-धार्मिक प्रथाएँ पशु अधिकारों के संदर्भ में विरोधाभाषी हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संदर्भ में हाल ही में दिये गए निर्णय के आलोक में इसका समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- जल्लीकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- मुख्य भाग में इस निर्णय के बारे में बताते हुए इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिये।
- सकारात्मक बिंदुओं का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
हाल के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने जल्लीकट्टू जैसी पारंपरिक प्रथाओं को अनुमति देने के क्रम में तमिलनाडु द्वारा पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 में किये गए संशोधनों को बरकरार रखा है। इस मुद्दे पर वन्यजीव कार्यकर्ताओं और इस परंपरा के समर्थकों के बीच लंबे समय से विवाद चल रहा है। इस फैसले से पशुओं से संबंधित अन्य खेलों जैसे कंबाला और बैलगाड़ी दौड़ को भी स्वीकार्यता प्राप्त हुई है।
मुख्य भाग:
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:
- संशोधनों की संवैधानिकता:
- सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य द्वारा किये गए संशोधनों द्वारा संविधान और जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगाने वाले न्यायालय के पूर्व के फैसले का उल्लंघन नहीं हुआ है।
- न्यायालय ने माना कि संशोधन अधिनियम और नियमों से भाग लेने वाले पशुओं के साथ होने वाली क्रूरता को काफी हद तक कम किया गया है।
- संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप होना:
- इस फैसले में पुष्टि की गई है कि 2017 का संशोधन अधिनियम संविधान की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 17 (जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम) और अनुच्छेद 51A(g) (जीवों के प्रति दया भाव रखना) के अनुरूप है।
- हालाँकि इसमें स्पष्ट किया गया है कि सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर कानून का कोई भी उल्लंघन, दंडनीय होगा।
- विधानसभा बनाम न्यायालय:
- न्यायालय ने फैसला दिया कि जल्लीकट्टू की सांस्कृतिक विरासत की स्थिति का निर्धारण विधि न्यायालय के बजाय राज्य विधानसभा की जिम्मेदारी होनी चाहिये।
- इस दृष्टिकोण से पता चलता है कि न्यायालय लोकतांत्रिक विचार-विमर्श के माध्यम से सांस्कृतिक प्रथाओं और पशु कल्याण को संतुलित करने की आवश्यकता को पहचानता है।
जल्लीकट्टू के पक्ष में तर्क:
- सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व:
- जल्लीकट्टू तमिलनाडु की संस्कृति में गहराई से निहित है और इसे सभी पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा मनाया जाता है।
- इसके समर्थकों का तर्क है कि यह सांस्कृतिक विरासत और सामुदायिक भावनाओं को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- विनियमन और सुधार:
- पूर्ण प्रतिबंध लगाने के बजाय इसके समर्थक जल्लीकट्टू को विनियमित करने और सुधारने का सुझाव देते हैं ताकि मनुष्यों और पशुओं दोनों के ही कल्याण को सुनिश्चित किया जा सके।
- इसके समर्थक दावा करते हैं कि इससे स्वदेशी पशुधन नस्लों के संरक्षण को महत्त्व मिलने के साथ करुणा और मानवता को बढ़ावा मिलता है।
जल्लीकट्टू के विपक्ष में तर्क:
- पशुओं के निहित अधिकार:
- इसके विरोधियों का तर्क है कि पशुओं सहित सभी जीवों को अंतर्निहित रूप से स्वतंत्रता है जिसे संविधान द्वारा मान्यता भी दी गई है।
- इनका तर्क है कि मनोरंजन के उद्देश्य से जानवरों पर क्रूरता करना नैतिक रूप से गलत है और यह जानवरों के अधिकारों के अनुरूप नहीं है।
- सुरक्षा चिंताएँ:
- जल्लीकट्टू में लोगों तथा साँडों दोनों की मौत और इनको चोट लगने की घटनाएँ देखी गई हैं।
- इसके आलोचकों का दावा है कि साँडों के प्रति आक्रामक व्यवहार अत्यधिक क्रूरता का कारण बनता है जिससे प्रतिभागियों और पशुओं को जोखिम उत्पन्न होता है।
- अतार्किक प्रथाओं की समाप्ति से तुलना:
- आलोचक जल्लीकट्टू और सती तथा दहेज प्रथा जैसी अतार्किक प्रथाओं को एक साथ रखकर देखते हैं तथा क्रूरता वाली सांस्कृतिक प्रथाओं को खत्म करने के क्रम में कानून की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं।
निष्कर्ष:
जल्लीकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं तथा पशु अधिकारों के बीच संघर्ष के प्रति सूक्ष्म दृष्टिकोण को दर्शाता है। इन संशोधनों को बरकरार रखने के साथ न्यायालय ने पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकने के महत्त्व पर जोर दिया है तथा सांस्कृतिक परंपरा के नाम पर कानून के किसी भी उल्लंघन को हतोत्साहित किया है।
जल्लीकट्टू से संबंधित बहस, सांस्कृतिक प्रथाओं के संरक्षण और संवेदनशील प्राणियों के कल्याण के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करने के साथ ऐसे संघर्षों को हल करने में लोकतांत्रिक विचार-विमर्श एवं नैतिक पहलुओं की भूमिका पर प्रकाश डालती है।