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ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    वैश्विक अर्थव्यवस्था 'डी-डॉलराइज़ेशन' से गुजर रही है। इस प्रवृत्ति हेतु उत्तरदायी अंतर्निहित कारक क्या हैं? भारत के संदर्भ में डी-डॉलराइज़ेशन से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने हेतु क्या उपाय किये जा सकते हैं? (250 शब्द)

    10 May, 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • अपने उत्तर की शुरुआत डी-डॉलराइज़ेशन के संक्षिप्त परिचय के साथ कीजिये।
    • मुख्यभाग में डी-डॉलराइज़ेशन की प्रवृत्ति में योगदान करने वाले कारकों की चर्चा कीजिये।
    • डी-डॉलराइज़ेशन से जुड़ी चुनौतियों की चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह को उल्लिखित करते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    डी-डॉलराइज़ेशन वैश्विक वित्तीय लेनदेन में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्त्व को कम करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। हाल के वर्षों में डी-डॉलराइज़ेशन की प्रवृत्ति देखी गई है, कई देशों द्वारा अपनी आरक्षित मुद्राओं में विविधता लायी गई है तथा अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम किया है।

    मुख्यभाग:

    डी-डॉलराइज़ेशन की प्रवृत्ति में योगदान करने वाले कुछ प्रमुख कारक:

    • भू-राजनीतिक तनाव: अमेरिका और अन्य देशों, विशेष रूप से चीन और रूस के मध्य बढ़ते तनाव ने अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करने के उद्देश्य से आर्थिक नीतियों में बदलाव को प्रोत्साहित किया है।
      • उदाहरण के लिये, अमेरिकी प्रतिबंध इसके प्रतिद्वंदी के मुक्त व्यापार में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
    • अमेरिकी आर्थिक नीतियाँ: अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की संकुचनकारी मौद्रिक नीतियों के कारण अन्य देशों से पूंजी का पलायन अमेरिका की ओर हुआ है जिससे विदेशी निवेश में कमी आ सकती है, जो कि इनके आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकता है।
    • वित्तीय संकट का जोखिम: वैश्विक व्यापार में डॉलर के प्रभुत्त्व से वैश्विक वित्तीय संकट का खतरा भी बढ़ जाता है, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में संकट का प्रभाव वैश्विक स्तर पर होता है।
    • उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ: भारत, चीन और रूस जैसी कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ अपने घरेलू आर्थिक क्षेत्र में निवेश कर रही हैं, जिसके कारण स्थानीय मुद्राओं की ओर झुकाव में वृद्धि हुई है परिणामस्वरूप अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता भी कम हुई है।
    • वैकल्पिक मुद्राओं के उपयोग में वृद्धि: यूरो, येन और युआन जैसी वैकल्पिक मुद्राओं के प्रसार ने वैश्विक लेनदेन में अमेरिकी डॉलर का विकल्प प्रदान किया है।

    अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में अमेरिकी डॉलर की प्रमुख स्थिति के कारण डी-डॉलराइज़ेशन, देशों के लिये कई चुनौतियाँ पेश करता है। इनमें से कुछ चुनौतियों में शामिल हैं:

    • पूर्ण परिवर्तनीय राष्ट्रीय मुद्राओं का अभाव: राष्ट्रीय मुद्राएँ पूर्ण रूप से परिवर्तनीय नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि व्यापार की वैकल्पिक प्रणालियों और कई मुद्रा विनिमय प्रणालियों के उदय के बावजूद अमेरिकी डॉलर अभी भी अपना प्रभुत्त्व बनाए हुए है।
      • उदाहरण के लिये, हाल ही में रूस ने इसी कारण से भारत के साथ रुपया में व्यापार समझौते को निलंबित कर दिया है।
    • मुद्रा में उतार-चढ़ाव: राष्ट्रीय मुद्राओं के मूल्य में डॉलर के सापेक्ष उतार-चढ़ाव रहता है, जिसके परिणामस्वरूप देशों को अपनी आर्थिक नीतियों हेतु योजना निर्माण करने में जटिलता का सामना करना पड़ता है एवं व्यवसायों के लिये दीर्घकालिक निवेश करना भी मुश्किल रहता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में राष्ट्रीय मुद्राओं का सीमित उपयोग: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, जिससे प्रतिस्पर्धा करना राष्ट्रीय मुद्राओं के लिये चुनौतीपूर्ण होता है। इससे देशों के लिये पारस्परिक व्यापार करना और व्यवसायों के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करना कठिन हो सकता है।
    • डॉलर पर निर्भरता: कई देश व्यापार और वित्तीय लेनदेन के लिये डॉलर पर अत्यधिक निर्भर हैं, जो उन्हें डॉलर के मूल्य में परिवर्तन और अमेरिकी सरकार की नीतियों के प्रति संवेदनशील बनाता है।
    • वित्तीय अस्थिरता: अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में डॉलर का प्रभुत्त्व अन्य देशों की वित्तीय अस्थिरता में योगदान कर सकता है, क्योंकि ऐसे देश वित्तीय संकटों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

    इससे उत्पन्न चुनौतियों के समाधान हेतु, भारत निम्नलिखित उपाय कर सकता है:

    • विदेशी मुद्रा भंडार में विविधता लाना: भारत यूरो, येन और युआन जैसी अन्य मुद्राओं में निवेश करके अपने विदेशी मुद्रा भंडार में विविधता ला सकता है, जिससे अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम हो सकती है।
    • स्थानीय मुद्राओं में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहन देना: भारत स्थानीय मुद्राओं में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित कर सकता है जैसे कि भारतीय रुपया, जो कि वैश्विक लेनदेन में अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता को कम कर सकता है।
      • अपने व्यापार भागीदारों के साथ रुपया में व्यापार समझौते के लिये, भारत द्वारा ज़ोर देना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
    • घरेलू बाज़ारों का विकास करना: भारत अपने घरेलू बाज़ारों (विशेष रूप से बॉण्ड बाज़ार) को विकसित कर सकता है, जो विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सकता है और विदेशी पूंजी पर भारत की निर्भरता को कम कर सकता है।
    • अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंधों को मज़बूत करना: भारत अन्य देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मज़बूत कर सकता है, विशेष रूप से उन देशों के साथ जो अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम कर रहे हैं, जैसे कि चीन और रूस आदि जो व्यापार और निवेश के नए अवसर प्रदान कर सकते हैं।

    निष्कर्ष

    वैश्विक अर्थव्यवस्था में डी-डॉलराइज़ेशन की प्रवृत्ति भारत के लिये चुनौतियाँ और अवसर दोनों प्रस्तुत करती है। अपने विदेशी मुद्रा भंडार में विविधता लाकर, स्थानीय मुद्राओं में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देकर, अपने घरेलू बाज़ारों को विकसित करके तथा अन्य देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मज़बूत करके, भारत डी-डॉलराइज़ेशन से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान कर सकता है और इसके द्वारा निर्मित अवसरों का लाभ उठा सकता है।

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