भारतीय मैदान की भौतिक दशाएँ संसार के अन्य भागों से कम बेहतर नहीं हैं, फिर भी यहाँ खाद्यान्न की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता एवं कृषि दक्षता निम्नतर बनी हुई है। विवेचन करें।
उत्तर :
उत्तर की रुपरेखा:
- भारतीय मैदान का महत्त्व लिखें।
- इसकी प्रमुख भौतिक विशेषताएँ।
- भारतीय मैदान में कृषि दक्षता तथा प्रति एकड़ खाद्यान्न उत्पादकता कम क्यों है?
- संक्षेप में इसके निराकरण के कुछ उपाय तथा सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के साथ उत्तर का समापन करें।
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महान भारतीय मैदान या उत्तर का मैदान हिमालय तथा दक्कन के पठार के मध्य स्थित है। इसकी उत्पत्ति सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं इनकी सहायक नदियों द्वारा लाए गए अवसादों से हुई है। भारतीय मैदान दुनिया के सबसे उर्वर प्रदेशों में से एक है। यहाँ उच्च उत्पादकता की सभी आदर्श दशाएँ मौजूद हैं, जैसे कि पर्याप्त वर्षा, उच्च जलस्तर, ढाल प्रवणता निम्न होने के कारण सड़क तथा रेलमार्ग के निर्माण में आसानी, मृदु भूमि होने से नहर तथा नलकूप इत्यादि के निर्माण में आसानी, फसलों की विविधता आदि। इन विशेषताओं के कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ भू-भागों में पर्याप्त समृद्धि आई है परंतु प्रति एकड़ उत्पादकता अब भी कम है।
महान भारतीय मैदान की अनुकूल भौतिक दशाएँ:
- गहरी, उर्वर तथा कंकड़ रहित कछारी मिट्टी और कई छोटी-बड़ी नदियों की मौजूदगी वाले इस मैदान में स्थित 5 राज्यों (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल) में देश की कुल जनसंख्या के 40% लोग निवास करते हैं।
- अनुकूल जलवायु तथा पर्याप्त वर्षा, मंद गति से बहने वाली सदावाहिनी नदियों की उपस्थिति, कृषि योग्य भूमि की प्रचुरता आदि फसलों की भरपूर उत्पादकता में सहायक हो सकते हैं।
- यहाँ भौगोलिक संरचना सभी प्रकार के परिवहन साधनों के विकास की अनुमति देता है। रेलमार्गों तथा सड़कों की पैठ आंतरिक क्षेत्रों तक है और नौवहनीय नदियों की उपलब्धता के कारण जलमार्गों का भी विकास हुआ है।
- नदियों का पर्याप्त जल स्तर तथा मिट्टी की मृदुता के कारण यहाँ नहर निर्माण तथा नलकूप लगाना भी आसान है।
- सस्ते तथा परिश्रमी मजदूरों की उपलब्धता।
भारतीय मैदान में निम्न कृषि दक्षता तथा प्रति हेक्टेयर निम्न खाद्यान्न उत्पादकता के कारणः
- सीमांत भूमि धारणः अधिकांश किसानों के पास अपेक्षाकृत काफी छोटी जोत हैं। इस कारण से व्यक्तिगत किसानों को अपनी कृषि पद्धति के बारे में निर्णय लेने में कठिनाई होती है। परिणामस्वरूप अधिकतम उपज के लिये वे प्रत्येक वर्ष अधिक-से-अधिक निविष्टियों का उपयोग करते हैं, जो कि दीर्घकाल में भूमि की उर्वरता को क्षति पहुँचाते हैं।
- कृषि-विस्तार सेवाओं के अभाव के कारण उगाई जाने वाली फसलों के संबंध में पर्याप्त सूचनाएँ जिसमें फसलों के किस चरण में कौन-सी सामग्री की आवश्यकता है, कीटों को कैसे नियंत्रित करें इत्यादि कृषकों तक प्रभावी ढंग से नहीं पहुँच पा रही हैं।
- कृषकों के द्वारा नई कृषि तकनीकों, जैसे कि उच्च उत्पादक किस्मों को अपनाने में रुचि न दिखाने के कारण भी कृषि की उत्पादकता प्रभावित होती है जो कृषि को और अधिक जोखिमपूर्ण बना देता है।
- कृषि क्षेत्र में काफी कम भूमि पर बहुत अधिक लोग आश्रित हैं, जो कि प्रछन्न बेरोजगारी में भी वृद्धि करता है।
- छोटी जोत के अधिकतर किसान अब भी कृषि के परंपरागत तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं जो कि निम्न उत्पादकता के लिये उत्तरदायी है।
- सिंचाई, बीज, वित्तपोषण, विपणन जैसी सेवाओं की अनुपलब्धता।
- पट्टेदारी की अनिश्चितताः उचित प्रोत्साहन की अनुपस्थिति में प्रायः किसान भूमि धारण नहीं करते हैं तथा पट्टेदारी संबंधी सुरक्षा की अनिश्चितता के चलते भू-स्वामी किसी भी समय उनसे भूमि छीन सकता है।
- भूमि सुधार कार्य अब तक वांछित परिणाम दे पाने में असफल रहे हैं।
- अपर्याप्त निवेशः औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में सरकार द्वारा कृषि की आधारभूत संरचना एवं शोध कार्यों में पर्याप्त निवेश नहीं किया गया है जो कि अंततः कृषि की निम्न उत्पादकता के लिये ज़िम्मेदार है।
- बैक एंड अवसंरचना तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का अभाव।
सुझावः ग्रामीणों के लिये वैकल्पिक व्यवसाय ढाँचे में सुधार, उन्नत बीजों, औजारों, रसायनों, उर्वरकों तथा खाद का प्रयोग, सिंचाई सुविधा में विस्तार, दोहरी फसल पद्धति अपनाना, फसलों का बेहतर चक्रण, पादप रोगों तथा पीड़कों से बचाव, प्रौद्योगिकी अपनाने की शर्तों को और अनुकूल बनाना, भूमि-पट्टेदारी प्रणाली एवं विपणन व्यवस्था में सुधार इत्यादि द्वारा कृषि क्षेत्र में प्रगति की जा सकती है।
निष्कर्ष: आज किसानों की इन चिंताओं को दूर करने के लिये नई तकनीकी नवाचार किये जा रहे हैं, जैसे कि प्रत्येक किसान के खेत को जियो टैग तथा उनकी स्थानीय भाषा में सूचना प्रदान करना। ये मौसम पूर्वानुमान तथा फसल की उपज के बारे में अनुमान भी जारी करते हैं, ताकि किसान सूचना के आधार पर निर्णय ले सकें तथा कृषि संबंधित नुकसान को कम कर सकें।
ऐसे समाधान उल्लेखनीय हैं, परंतु सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों के सम्मिलित प्रयास के साथ-साथ जन भागीदारी सुनिश्चित करके ही भारतीय कृषि की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।