भारत में शक्तियों के पृथक्करण पर न्यायिक सक्रियता के प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। क्या आपको लगता है कि हाल के वर्षों में न्यायिक सक्रियता की प्रवृत्ति में काफी वृद्धि हुई है? उपयुक्त उदाहरणों द्वारा अपने तर्कों की पुष्टि कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- शक्तियों के पृथक्करण के बारे में संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- भारत में शक्तियों के पृथक्करण पर न्यायिक सक्रियता के प्रभावों की चर्चा कीजिये।
- न्यायिक सक्रियता की प्रवृत्तियों के बारे में उदाहरण सहित बताइए।
- तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन को संदर्भित करती है। न्यायपालिका से राज्य के एक स्वतंत्र अंग के रूप में अन्य दो शाखाओं की शक्तियों पर नियंत्रण के रूप में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। हालाँकि हाल के वर्षों में न्यायिक सक्रियता की प्रवृत्ति में वृद्धि देखी गई है, जिसमें सार्वजनिक नीति निर्माण और शासन संचालन को आकार देने में न्यायपालिका द्वारा सक्रिय भूमिका निभाई जा रही है। इससे भारत में शक्तियों के पृथक्करण पर न्यायिक सक्रियता के प्रभावों से संबंधित बहस को जन्म मिला है।
मुख्य भाग:
न्यायिक सक्रियता के सकारात्मक प्रभाव:
- न्यायपालिका की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना:
- न्यायिक सक्रियता ने देश के शासन में अधिक सक्रिय भागीदार के रूप में न्यायपालिका की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने में मदद की है।
- इसने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को मजबूत करने में मदद की है क्योंकि इससे न्यायपालिका, सरकार की अन्य दो शाखाओं के कार्यों पर सकारात्मक नियंत्रण रखने में सक्षम होती है।
- न्यायिक समीक्षा का विस्तार होना:
- न्यायिक सक्रियता से न्यायिक समीक्षा के दायरे का भी विस्तार हुआ है।
- इससे संवैधानिक मानदंडों का पालन सुनिश्चित करने के क्रम में न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा विधायिका के कार्यों पर अधिक नियंत्रण मिला है।
- मौलिक अधिकारों का संरक्षण होना:
- न्यायिक सक्रियता, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सहायक रही है।
- न्यायपालिका ने कार्यपालिका और विधायिका द्वारा किये जाने वाले भेदभाव, मानवाधिकारों के उल्लंघन और शक्तियों के दुरुपयोग के मामलों में हस्तक्षेप किया है, जिससे नागरिकों के हितों की रक्षा हुई है।
- नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन होना:
- न्यायपालिका अपने हस्तक्षेप के माध्यम से नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन को भी सुनिश्चित करने में सक्षम रही है।
- उदाहरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण पूरे देश में मध्याह्न भोजन योजना का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित हुआ है।
न्यायिक सक्रियता की प्रवृत्ति में वृद्धि होना:
- न्यायिक अतिरेक:
- हाल के वर्षों में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहाँ न्यायपालिका ने अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है और कार्यपालिका तथा विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण किया है।
- उदाहरण के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने विधायिका द्वारा पारित संवैधानिक संशोधन को रद्द कर दिया, जिससे शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत कमजोर हुआ।
- नीति निर्माण:
- ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ न्यायपालिका ने नीति निर्माण का कार्य किया है, जो कि कार्यपालिका और विधायिका का क्षेत्र है।
- उदाहरण के लिये दिल्ली में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से डीजल वाहनों पर प्रतिबंध लगाया गया, जिसे कार्यपालिका की शक्तियों पर अतिक्रमण के रूप में देखा गया।
- शासन पर प्रभाव:
- न्यायिक सक्रियता की बढ़ती प्रवृत्ति का प्रभाव शासन पर भी पड़ा है।
- नीतिगत मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप से इस संदर्भ में अनिश्चितता पैदा होने के कारण कार्यपालिका के लिये नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करना मुश्किल हो जाता है।
निष्कर्ष:
भारत में शक्तियों के पृथक्करण पर न्यायिक सक्रियता के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रभाव हुए हैं। इससे न्यायपालिका की भूमिका को फिर से परिभाषित करने एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सहायता मिली है लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ न्यायपालिका ने अपने अधिकार क्षेत्र से परे जाते हुए कार्यपालिका तथा विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण किया है। इसलिये न्यायपालिका को सक्रियता तथा संयम के बीच संतुलन बनाए रखने के साथ यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि इससे शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत कमजोर न हो।