भारतीय समाज में जाति-आधारित भेदभाव का एक लंबा इतिहास रहा है। इस समस्या को दूर करने के क्रम में डॉ भीमराव अंबेडकर के योगदानों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- जाति-आधारित भेदभाव की बेड़ियों से भारतीय समाज किस प्रकार जकड़ा हुआ था, यह बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- जातिवाद के उन्मूलन में डॉ. अंबेडकर की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
- डॉ. अंबेडकर के योगदान के प्रभावों को बताते हुए चर्चा कीजिये कि किस प्रकार उनके प्रयास आज भी मार्गदर्शक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं।
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परिचय:
जाति नियंत्रण का दूसरा नाम है। जाति द्वारा लोगों के उपभोग पर सीमा आरोपित होती है। जाति किसी व्यक्ति को अपने उपभोग के लिये जाति की सीमाओं को लांघने की अनुमति नहीं देती है……... ― B R Ambedkar
भारत की जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण के दुनिया के सबसे पुराने रूपों में से एक है। जाति व्यवस्था एक ऐसी सामाजिक संरचना है जो लोगों को उनके जन्म के आधार पर विभिन्न जातियों में विभाजित करती है, प्रत्येक जाति की अपनी सामाजिक स्थिति, व्यवसाय और प्रतिबंध होते हैं। हिंदू धर्म में चार मुख्य जातियाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थीं और जाति व्यवस्था के बाहर ऐसे समूह भी हैं जिन्हें दलित या "अछूत" कहा जाता है।
ऐतिहासिक रूप से जाति-आधारित भेदभाव ने कई रूप ले लिये हैं जैसे कि अस्पृश्यता- जिसमें निम्न जातियों के लोगों को अनुष्ठानिक रूप से अशुद्ध माना जाता था और कुछ गतिविधियों या स्थानों से उन्हें वर्जित किया जाता था एवं निम्न जाति के व्यक्तियों की शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच को प्रतिबंधित कर दिया जाता था।
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दलित मुक्ति के आंदोलन को प्रेरित करने में था। उन्हें दलित चेतना जगाने का श्रेय दिया जाता है जिससे समाज में समानता का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
मुख्य भाग:
समाज से जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने की दिशा में डॉ. भीम राव अंबेडकर का योगदान:
- भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करना: प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अंबेडकर ने भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर बल देने के साथ विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से जाति-आधारित भेदभाव को गैरकानूनी घोषित किया (विशेष रूप से मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 से 18 तक)। इसके साथ ही राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत सामाजिक और आर्थिक न्याय हेतु एक ढाँचा भी प्रदान किया था।
- सामाजिक समानता के लिये अभियान चलाना: अंबेडकर जाति व्यवस्था के मुखर आलोचक थे और उन्होंने सामाजिक समानता के लिये अभियान चलाया था। उन्होंने अछूतों के कल्याण हेतु कार्य करने के लिये वर्ष 1924 में "बहिष्कृत हितकारिणी सभा" की स्थापना की थी और बाद में समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये "अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ" की स्थापना की थी। उन्होंने वर्ष 1927 में महाड सत्याग्रह का भी नेतृत्त्व किया था जिसे दलित आंदोलन की "आधारभूत घटना" माना जाता है। इससे पहले वर्ष 1930 में उन्होंने लगभग 15000 दलितों को पहली बार भगवान के दर्शन कराने में मदद करने के लिये कालाराम मंदिर में प्रवेश कराया था।
- आरक्षण प्रणाली का प्रावधान करना: अंबेडकर ने आरक्षण प्रणाली का प्रस्ताव रखा, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक सीटों का एक निश्चित प्रतिशत समाज के सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षित किया जाए। इससे इन वर्गों को शिक्षा और रोज़गार के अवसर मिलने के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से उनका उत्थान करने में सहायता मिली।
- अंबेडकर ने वर्ष 1932 में महात्मा गांधी के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किये, जिससे दलितों के लिये सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
- शैक्षिक सुधार: अंबेडकर ने सामाजिक असमानता को दूर करने में शिक्षा के महत्त्व पर ज़ोर देने के साथ समाज के हाशिये पर स्थित वर्गों हेतु शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के लिये कार्य किया था।
निष्कर्ष:
शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सकारात्मक नीतियों जैसे आरक्षण एवं मौलिक अधिकारों के प्रावधान जैसे कि समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17) और उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18) के माध्यम से दलितों और हाशिए पर स्थित अन्य समुदायों को सशक्त बनाने के अंबेडकर के प्रयासों का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
हाल के दशकों में हुई प्रगति के बावजूद, जाति आधारित भेदभाव भारतीय समाज के लिये एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। हालाँकि अंबेडकर की विरासत और दृष्टिकोण से अधिक समावेशी और न्यायसंगत भारत हेतु मार्ग प्रशस्त होता रहेगा।