भारत में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के स्वैच्छिक (मनमाने) कार्यों की संभावना को कैसे कम करता है? अपने उत्तर को स्पष्ट करने के लिये उदाहरण दीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
दृष्टिकोण:
- भारतीय संविधान में निर्धारित शक्तियों के पृथक्करण के बारे में संक्षेप में परिचय देते हुए अपना उत्तर प्रारंभ कीजिये।
- उदाहरण के साथ चर्चा कीजिये कि यह सरकार की मनमानी कार्रवाई को कैसे सीमित करता है।
- तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा को पहली बार वर्ष 1748 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "द स्पिरिट ऑफ द लॉज" में फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू द्वारा प्रस्तावित किया गया था। उन्होंने तर्क दिया था कि सरकार की शक्तियों को तीन शाखाओं में विभाजित किया जाना चाहिये अर्थात् विधायी, कार्यकारी और न्यायिक।
- यह अवधारणा किसी एक शाखा को बहुत शक्तिशाली बनने से रोकने के साथ यह सुनिश्चित करती है कि सरकार लोगों के प्रति जवाबदेह है।
मुख्य भाग:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50 शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान करता है। यह सरकार की शक्तियों को तीन शाखाओं में विभाजित करता है- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायिपालिका जहाँ:
- विधायिका कानून बनाने के लिये जिम्मेदार है कार्यपालिका कानूनों और नीतियों को लागू करने के लिये जिम्मेदार है और न्यायिपालिका कानूनों की व्याख्या करने और विवादों को सुलझाने के लिये जिम्मेदार है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान का अनुच्छेद 121 विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान करता है जिसमें कहा गया है कि अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश के आचरण पर विधायिका में कोई चर्चा नहीं होगी।
- यह सुनिश्चित करता है कि विधायिका, न्यायपालिका के काम में हस्तक्षेप नहीं करेगी और न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से अपना काम कर सकती है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74 कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान करता है। जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिये प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद होगी।
- इसका मतलब यह है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कार्यकारी शाखा, सरकार के कानूनों और नीतियों को पूरा करने के लिये जिम्मेदार है जबकि विधायिका (जो राष्ट्रपति, निर्वाचित सांसदों और मंत्रिपरिषद से बनी है) कानून बनाने के लिये जिम्मेदार है।
- भारत में शक्तियों का पृथक्करण निरपेक्ष नहीं है क्योंकि इन शाखाओं के बीच परस्पर निर्भरता है।
- उदाहरण के लिये कार्यकारी शाखा नए कानूनों के निर्माण के लिये विधायी शाखा को सिफारिशें कर सकती है।
- इसके अतिरिक्त न्यायिक शाखा यह सुनिश्चित करने के लिये कार्यकारी और विधायी शाखाओं के कार्यों की समीक्षा कर सकती है कि वे संविधान के अनुपालन में हैं।
- शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के मनमाने कार्यों की संभावना को कम करता है जैसे:
- नियंत्रण और संतुलन रखना: शक्तियों का पृथक्करण, नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली स्थापित करता है जहाँ सरकार की प्रत्येक शाखा के पास अन्य शाखाओं के कार्यों को संतुलित करने की शक्ति होती है।
- उदाहरण के लिये न्यायपालिका के पास असंवैधानिक कानूनों की समीक्षा करने और उन्हें रद्द करने की शक्ति है। इस प्रकार यह विधायी शाखा को मनमाना कानून पारित करने से रोकती है।
- जवाबदेहिता: सरकार की प्रत्येक शाखा विभिन्न निकायों या संस्थानों के प्रति जवाबदेह होती है। कार्यपालिका, विधायिका के प्रति जवाबदेह है, विधायिका मतदाताओं के प्रति जवाबदेह है और न्यायपालिका संविधान के प्रति जवाबदेह है।
- इससे सुनिश्चित होता है कि प्रत्येक शाखा को अपने कार्यों के लिये जवाबदेह ठहराया जाए और सरकार के मनमाने कार्यों को रोका जाए।
- स्वतंत्र न्यायपालिका: न्यायपालिका की स्वतंत्रता यह सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण है कि सरकार मनमानी कार्रवाई नहीं कर रही है।
- न्यायपालिका सरकार की अन्य शाखाओं के कार्यों पर संतुलन के रूप में कार्य करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सरकार संविधान की सीमाओं के अंदर कार्य करे।
- मनमाने कार्यों को सीमित करने के उदाहरण:
- केशवानंद भारती बनाम भारत संघ (1973) का मामला: इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है और इसका उपयोग संविधान की मूल संरचना को नष्ट करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- इस फैसले ने संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धांत को स्थापित किया था जो संविधान में संशोधन करने की सरकार की शक्ति को सीमित करता है और सरकार के मनमाने कार्यों को रोकता है।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामला: इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य सरकार को बर्खास्त करने की राष्ट्रपति की शक्ति असीमित नहीं है और इसका प्रयोग केवल राज्यपाल द्वारा प्रदान की गई जानकारी के आधार पर किया जा सकता है।
- इस फैसले ने राज्यपाल की रिपोर्ट के सिद्धांत को स्थापित किया था जो राज्य सरकार को बर्खास्त करने की सरकार की शक्ति को सीमित करता है और इसके मनमाने कार्यों को रोकता है।
निष्कर्ष:
शक्तियों के पृथक्करण से नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली बनती है जहाँ सरकार की प्रत्येक शाखा के पास अन्य शाखाओं के कार्यों को सीमित करने की शक्ति होती है और इससे यह सुनिश्चित होता है कि प्रत्येक शाखा को उसके कार्यों के लिये जवाबदेह ठहराया जाए। ऊपर दिये गए उदाहरण, भारत में सरकार के मनमाने कार्यों की संभावना को कम करने में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के महत्त्व को दर्शाते हैं।