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प्रश्न :
"भारतीय न्यायिक प्रणाली में समावेशिता का अभाव होने के साथ पुरुषों का अधिक वर्चस्व है"। इस कथन के आलोक में, न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये और न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की समावेशिता सुनिश्चित करने हेतु उपाय सुझाइए। (250 शब्द)
06 Dec, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व की वर्तमान स्थिति को संक्षेप में बताते हुए अपने उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व में कमी से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व बढ़ाने के लिये कुछ उपाय सुझाइए।
- तदनुसार निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
- “दुनिया की महिलाओं एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के लिये अपनी जंज़ीरों के अलावा कुछ नहीं है”- भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना
- उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीश मात्र 11.5% हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय में 33 में से चार महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं।
- देश में महिला अधिवक्ताओं/वकीलों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। पंजीकृत 1.7 मिलियन अधिवक्ताओं में से केवल 15% महिलाएंँ हैं।
- वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद महिलाओं के अनुभव, शैक्षिक योग्यता और क्षमताओं के बावजूद भारत ने अभी तक न्यायाधीशों के रूप में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश का चुनाव नहीं किया है।
मुख्य भाग:
- न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्त्व से संबंधित मुद्दे:
- समाज में पितृसत्ता: न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्त्व का प्राथमिक कारण समाज में पितृसत्ता है। महिलाओं को अक्सर न्यायालयों के भीतर अपमानजनक माहौल का सामना करना पड़ता है। बार और बेंच के सदस्यों से सम्मान की कमी, उत्पीड़न का भाव, उनकी राय को अनसुना किया जाना तथा कुछ अन्य दर्दनाक अनुभव हैं जो कई महिला वकीलों द्वारा बताए जाते हैं।
- अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली: भर्ती के लिये प्रवेश परीक्षा पद्धति के माध्यम से अधिकाधिक महिलाएँ निचली न्यायपालिका में प्रवेश करती हैं। हालाँकि उच्च न्यायपालिका में एक कॉलेजियम प्रणाली प्रचलित है, जो अधिकाधिक अपारदर्शी बनी हुई है और इसलिये इसके पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की अधिक संभावना है।
- हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने उच्च न्यायालयों के लिये 192 उम्मीदवारों की सिफारिश की, इनमें से 37 यानी 19% महिलाएँ थीं लेकिन दुर्भाग्य से अब तक अनुशंसित 37 में से केवल 17 महिलाओं को ही नियुक्त किया गया है।
- महिला आरक्षण का अभाव: कई राज्यों में निचली न्यायपालिका में महिलाओं के लिये एक आरक्षण नीति का कार्यान्वयन किया जाता है, लेकिन उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में यह अवसर मौजूद नहीं है।
- असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों को इस तरह के आरक्षण से लाभ हुआ है, क्योंकि अब उनके पास 40-50% महिला न्यायिक अधिकारी हैं।
- वस्तुस्थिति यह है कि संसद और राज्य विधानसभाओं तक में महिलाओं को 33% आरक्षण देने का विधेयक आज तक पारित नहीं हुआ है, बावजूद इसके कि सभी प्रमुख राजनीतिक दल सार्वजनिक रूप से इसका समर्थन करते रहे हैं।
- पारिवारिक उत्तरदायित्व: आयु और पारिवारिक उत्तरदायित्व जैसे कारक भी अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं से उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की पदोन्नति को प्रभावित करते हैं।
- लिटिगेशन (Litigation) के क्षेत्र में महिलाओं की पर्याप्त संख्या का अभाव: चूँकि बार से बेंच में पदोन्नत किये गए अधिवक्ता उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के एक महत्त्वपूर्ण अनुपात का निर्माण करते हैं, महिलाएँ यहाँ भी पीछे रह जाती हैं। उल्लेखनीय कि महिला अधिवक्ताओं की संख्या अभी भी कम है, जिससे वह समूह छोटा रह जाता है, जिससे महिला न्यायाधीश चुनी जा सकती हैं।
- न्यायिक अवसंरचना: न्यायिक बुनियादी ढाँचा या इसकी कमी पेशेवर महिलाओं के लिये एक और बाधा है।
- छोटे कोर्टरूम जो भीड़भाड़ वाले और तंग हैं, में टॉयलेट का अभाव तथा चाइल्डकेयर सुविधाओं की कमी।
- कोई गंभीर प्रयास नहीं: पिछले 70 वर्षों के दौरान उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व देने के लिये कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। भारत में महिलाएँ कुल आबादी का लगभग 50% हैं साथ ही बार और न्यायिक सेवाओं में पदोन्नति के लिये बड़ी संख्या में महिलाएँ उपलब्ध हैं, लेकिन इसके बावजूद महिला न्यायाधीशों की संख्या कम है,
- न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व बढ़ाने हेतु आवश्यक उपाय:
- उच्च न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों के रूप में महिला सदस्यों के एक निश्चित प्रतिशत के साथ लैंगिक विविधता को बनाए रखने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है। यह भारत की लिंग-तटस्थ न्यायिक प्रणाली के विकास का नेतृत्त्व करेगी।
- समावेशिता पर बल देकर और संवेदनशील बनाकर भारत की आबादी के बीच संस्थागत, सामाजिक और व्यवहारिक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:
न्यायालय की लंबे समय से स्थापित जनसांख्यिकी को बदलने से संस्था स्वयं को एक नए प्रकाश में विचार करने के लिये अधिक उत्तरदायी बनाई जा सकती है तथा संभावित रूप से इसमें आगे आधुनिकीकरण और सुधार हो सकता है। कानूनी पेशा, समानता के द्वारपाल के रूप में और अधिकारों के संरक्षण के लिये प्रतिबद्ध एक संस्था के रूप में, लैंगिक समानता का प्रतीक होना चाहिये।
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