19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों की स्वरूपगत विशेषताओं की चर्चा करते हुए बताइये कि ये मध्यकालीन सुधार आंदोलनों से किस तरह भिन्न थे?
01 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास
उत्तर की रूपरेखा
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आधुनिक शिक्षा प्राप्त बुद्धजीवियों में यह चेतना फैली कि औपनिवेशिक शासन का मूल कारण तो भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में मौजूद कुरीतियों में है। इसी कारण आधुनिक शिक्षा एवं पाश्चात्य विचारों से प्रभावित भारतीयों ने अपने सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों को दूर करने के क्रम में सुधार आंदोलन आरंभ किये, किंतु ये सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन विभिन्न स्वरूपों से युक्त थे-
सामाजिक सुधार का स्वरूपः 19वीं सदी के सुधार आंदोलन मुख्यतः सामाजिक सुधारों के स्वरूप से युक्त दिखाई देते हैं। चूँकि भारतीय समाज के मूल्य, रीति-रिवाज़ धर्म पर आधारित थे, अतः अनेक कुरीतियों का समर्थन धर्म के आधार पर किया जाता था। अतः धर्म में सुधार लाए बिना समाज में सुधार संभव नहीं था।
मध्यवर्गीय स्वरूपः सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन का नेतृत्त्वकर्ता मध्यवर्ग था और उसके प्रचार-प्रसार का माध्यम पत्र-पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें थी। इस आंदोलन का मुख्यतः प्रसार शिक्षित समूह एवं शहरी क्षेत्रों तक रहा। इस दृष्टि से इसका स्वरूप मध्यवर्गीय दिखाई देता है। इतना ही नहीं, सुधारकों की मांगे जैसे- सती प्रथा, विधवा प्रथा, प्रदा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा की समाप्ति प्रायः समाज के मध्य या उच्च वर्ग से संबंधित थी।
प्रजातांत्रिक स्वरूपः सुधार आंदोलनों में व्यक्ति के अधिकारों, स्वतंत्रता तथा समानता पर बल दिया गया तो साथ ही महिला मुक्ति की भी बात की गई तथा कानून के माध्यम से सुधारों पर बल दिया गया।
शैक्षणिक स्वरूपः 19वीं सदी के सुधार आंदोलन चाहे किसी भी धर्म और समाज से जुड़े रहे हों, सभी में शिक्षा पर विशेष बल दिया गया।
इसके अलावा ये सामाजिक धार्मिक आंदोलन राजनैतिक विचारों को प्रसारित कर समाज में स्वदेशी व स्वराज जैसी अवधारणाओं को मज़बूत किया तो साथ ही नारी मुक्ति के स्वरूप से भी युक्त था।
मध्यकालीन भारतीय सुधार आंदोलन के स्वरूप से भिन्नताः 19वीं सदी के सुधार आंदोलन 16वीं सदी के मध्यकालीन भारतीय आंदोलन से भिन्न दिखाई देते हैं। वस्तुतः 19वीं सदी के सुधार आंदोलनों में कानून निर्माण द्वारा सामाजिक कुरीतियों का दूर करने पर बल दिया तो साथ ही आधुनिक शिक्षा पर बल देते हुए नारी मुक्ति की बात कही। यह बात 16वीं सदी के मध्यकालीन सुधारों पर नहीं दिखाई देती है। यहाँ पर कबीर, नानक जैसे समाज सुधारकों ने उपदेश देते हुए लोगों को नैतिक मूल्यों के पालन पर बल दिया और एक-दूसरे के सम्मान की बात कही।