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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न. राज्यपाल 'राज्य का संवैधानिक प्रमुख' होने के बजाय 'केंद्र का एजेंट' मात्र होता है। भारत में राज्यपाल के पद से जुड़े हाल के विवादों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    01 Nov, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए परिचय दीजिये।
    • केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करने पर चर्चा कीजिये।
    • राज्यपाल के पद से संबंधित हाल के विवादों पर चर्चा कीजिये।
    • राज्यपाल की भूमिका से संबंधित विवाद को हल करने के लिये किए गए विभिन्न प्रयासों की चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय

    जिस प्रकार केंद्र में राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति होता है उसी प्रकार राज्यों में राज्य का प्रमुख राज्यपाल होता है।

    उल्लेखनीय है कि राज्यपाल राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है और राज्य की सभी कार्यवाहियाँ उसी के नाम पर की जाती हैं।

    प्रत्येक राज्य का राज्यपाल देश के केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है एवं यह राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह से कार्य करता है।

    राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

    • अनुच्छेद 153 कहता है कि प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
    • राज्यपाल के पास क्षमादान, राहत आदि देने की शक्ति है (अनुच्छेद 161)।
    • कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 163)
    • राज्यपाल मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है (अनुच्छेद 164)।

    राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करता है:

    • पक्षपाती विचारधारा: कई मामलों में, एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के साथ पहचान करने वाले राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के रूप में नियुक्त किया गया है।
    • किसी विशेष राजनीतिक दल का पक्ष लेना: चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी/गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया जाता है।

    राज्यपाल से जुड़े हालिया विवाद:

    • हाल के विवाद मुख्यमंत्री के चयन (महाराष्ट्र 2019, कर्नाटक 2019) के मुद्दों के आसपास रहे हैं, जिसमें जो विधायी बहुमत साबित करने के लिये समय का निर्धारण शामिल है, दिन-प्रतिदिन के प्रशासन (दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल) के बारे में जानकारी की मांग करना शामिल है। राष्ट्रपति के लिये बिलों या आरक्षित बिलों को स्वीकृति देने में स्पष्ट रूप से लंबा समय लेना, राज्य सरकार की विशिष्ट नीतियों पर प्रतिकूल टिप्पणी करना और राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (केरल के राज्यपाल बनाम राज्य विधायिका) के रूप में राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करना जैसे विवाद भी देखे गए हैं। इसलिये, राज्य के संवैधानिक प्रमुख होने के बजाय केंद्र के एजेंट के रूप में केंद्र सरकार की कठपुतली होने के लिये राज्यपालों की आलोचना की जा रही है।

    राज्यपालों द्वारा निभाई गई कथित पक्षपातपूर्ण भूमिका से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिये किये गए प्रयास:

    • राज्यपालों के चयन के संबंध में परिवर्तन:
      • वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा संविधान के कामकाज की समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने सुझाव दिया कि किसी राज्य के राज्यपाल को उस राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिये।
    • सरकारिया आयोग का प्रस्ताव:
      • केंद्र-राज्य संबंधों पर वर्ष 1983 में गठित सरकारिया आयोग ने प्रस्ताव दिया कि राज्यपालों के चयन में भारत के उपराष्ट्रपति एवं लोकसभा के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच परामर्श किया जाना चाहिये।
    • पुंछी समिति का प्रस्ताव:
      • केंद्र-राज्य संबंधों पर वर्ष 2007 में गठित न्यायमूर्ति मदन मोहन पुंछी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, उपराष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष और संबंधित मुख्यमंत्री की एक समिति द्वारा राज्यपाल का चयन किया जाना चाहिये।
      • पुंछी समिति ने संविधान से "प्रसादपर्यंत के सिद्धांत" को हटाने की सिफारिश की, लेकिन राज्य सरकार की सलाह के खिलाफ रहने वाले मंत्रियों पर मुकदमा चलाने की मंजूरी पर राज्यपाल के अनुमोदन के अधिकार का समर्थन किया।
      • इसने राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने के प्रावधान का समर्थन किया।

    निष्कर्ष:

    राज्यपालों का मानना है कि वे संविधान के तहत जो कार्य करते हैं, वे अतिरंजित प्रतीत होते हैं। उनसे संविधान की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है और वे निर्वाचित शासनों को संविधान का उल्लंघन करने के खिलाफ चेतावनी देने के लिये अपनी शक्तियों का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे निर्णय लेने हेतु समय-सीमा की अनुपस्थिति और समानांतर शक्ति केंद्र के रूप में कार्य करने के लिये उन्हें दिये गए विवेकाधीन शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।

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