पानीपत की तीसरी लड़ाई ने यह फैसला नही किया कि भारत में कौन राज करेगा बल्कि यह तय कर दिया कि कौन शासन नहीं करेगा? विश्लेषण करें।
08 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर की रूपरेखा :
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पतनोन्मुख मुगल सत्ता को सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती मराठों से मिली। मुगल काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उपस्थित शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मराठा ही थे। मुगल साम्राज्य के विघटन से उत्पन्न रिक्तता को भरने की सामर्थ्य केवल मराठों में ही थी। किंतु यदि मराठा भारत में मुगलों का विकल्प बनने में असफल रहे तो इसका बड़ा कारण 1761 के पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की करारी हार थी।
1750 के दशक में मराठों का प्रभाव उत्तर भारतीय क्षेत्र में तेजी से बढ़ा। 1752 में इमाद-उल-मुल्क को दिल्ली में वज़ीर बनाने में मराठों ने काफी मदद की। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में मराठों का प्रभाव काफी तेजी से बढ़ा। दिल्ली से वे पंजाब की ओर मुड़े जहाँ उस वक्त अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली का प्रतिनिधि शासन कर रहा था। मराठों ने अहमद शाह के प्रतिनिधि को भगा दिया। इससे मराठों और अहमद शाह के बीच संघर्ष होना सुनिश्चित हो गया।
मराठों और अहमद शाह के सैनिकों के बीच 14 जनवरी 1961 को पानीपत में युद्ध हुआ। यह युद्ध मराठों के लिये बहुत बड़ा आघात था। उन्हें अपने बेहतरीन सरदारों एवं सैनिकों को खोना पड़ा जिससे उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा। सबसे बढ़कर मराठों की इस हार के कारण अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी मजबूत हुई और इस कारण मराठा फिर कभी मुगलों का विकल्प प्रस्तुत करते नहीं नज़र आए।
दूसरी ओर अफ़गानों को भी अपनी विजय का कोई लाभ नहीं मिला। वे भारत में प्रसार तो दूर, पंजाब को भी अपने अधिकार में नहीं रख पाये। इसलिये यह कथन बहुत सही प्रतीत होता है कि पानीपत की तीसरी लड़ाई ने यह तय नहीं किया कि भारत पर कौन शासन करेगा, बल्कि यह तय कर दिया कि भारत में कौन शासन नहीं करेगा।