वैश्वीकरण ने कुछ महिलाओं को अवसर प्रदान किया है तो बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर ढकेल दिया है। चर्चा करें।
09 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाजउत्तर की रूपरेखा :
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वैश्वीकरण को आमतौर पर व्यापार की बाधाओं को दूर करने और राष्ट्रीय सीमाओं के पार विदेशी निवेश, निजी पोर्टफोलियो पूंजी और श्रम के मुक्त प्रवाह को प्रोत्साहित करने के लिये दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण के रूप में देखा जा सकता है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत न सिर्फ द्रुत गति से औधोगिक एवं आर्थिक विकास की बातें की जाती हैं, बल्कि समस्त समाज के कायाकल्प की बात भी इसमें शामिल है। देश एवं समाज को उन्नत बनाने के वैश्वीकरण के दावे में कितनी सच्चार्इ है, इसे उसके आलोचनात्मक मूल्यांकन से समझा जा सकता है।
इसमें संदेह नहीं कि वैश्वीकरण के युग में महिलाओं की उन्नति एवं विकास के लिये पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के माध्यम से महिलाओं को राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक प्रगति में भागीदार बनाए जाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत महिलाओं के अनुकूल रोजगार का निर्माण भी किया जा रहा है, ताकि योग्य एवं सक्षम महिलाएँ राष्ट्र के आर्थिक विकास में समुचित एवं सक्रिय भागीदारी कर सके। आर्थिक प्रणाली में पाश्चात्य मूल्यों की स्वीकृति के कारण कार्य के क्षेत्र में पुरुष एवं महिलाओं में कोर्इ अंतर अब नहीं किया जाता। उनकी सुरक्षा की समुचित गारंटी भी दी जाती है। आज की महिलाएँ स्वयं को ज्यादा स्वतंत्र एवं ज्यादा आत्मनिर्भर महसूस कर रही हैं और विकास की प्रक्रिया में पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रही हैं। इससे उनकी सामाजिक स्थिति भी सुदृढ़ हुर्इ है और उन्हें सम्मान एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी देखा जा रहा है। इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप भारतीय महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थिति में व्यापक सुधार हुआ है।
महिला विकास एवं महिला सशक्तीकरण के वैश्वीकरण के प्रयत्नों के बावजूद भारत में इसका प्रभाव कर्इ क्षेत्रों में नकारात्मक भी रहा है। सर्वप्रथम तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अंतर्गत महिलाओं का वस्तुकरण हो गया है, वे प्रदर्शनी की चीज बनती जा रही हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति तथा अपनी सेवाओं और वस्तुओं को बेचने के लिये महिलाओं की योग्यता, क्षमता एवं व्यक्तित्व का भरपूर प्रयोग करती हैं।
भारत में लगभग कुल श्रमिकों का 31% महिला श्रमिक हैं जिसमें से 95-96% असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। इन क्षेत्रों में न तो अच्छा वेतन है, न काम के निश्चित घंटे। न कोई जॉब सिक्यूरिटी और न ही सामाजिक सुरक्षा। इन क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं के शोषण की संभावनाएँ बहुत अधिक होती हैं।
असंगठित क्षेत्रों में काम की अनिश्चितता होती है, प्रतिस्पर्धा के इस युग में नौकरी को बचाए रखने के लिये महिलाएँ अक्सर देर तक और अपनी क्षमता से ज़्यादा काम करती हैं। श्रमिक कानूनों को धता बताकर न सिर्फ असंगठित बल्कि आईटी आदि अच्छे क्षेत्रों में भी 12-12 घंटे काम लेना सामान्य माना जाने लगा है। प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न तनाव, मानसिक व शारीरिक थकान, काम के लंबे घंटे स्वास्थ्य के लिये तो हानिकारक हैं ही, सामाजिक संबंधों के लिये भी घातक हैं और कई मनोविकारों को जन्म देते हैं।
तकनीकी विकास के चलते कई क्षेत्रों में बेहतर उत्पादन के लिये मशीनों का इस्तेमाल बढ़ा है। इसके कारण रोज़गार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। हथकरघा अथवा खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं के ऊपर रोजगार संकट मंडरा रहा है। बेरोजगारी, ठेका अथवा अस्थायी काम का असर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं पर ज़्यादा होता है।
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हर क्षेत्र की महिलाओं के साथ होता है चाहे वह संगठित हो या असंगठित, विशेष तौर पर रात की पाली में काम कर रही महिलाओं के साथ। वैश्वीकरण के चलते बीपीओ, कॉल सेंटर नए रोज़गार बनकर उभरे हैं पर इनमें काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा पर अक्सर सवाल खड़े होते हैं
संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाने के लिये कई प्रस्ताव दिये हैं। जैसे- स्त्री एवं पुरुष के लिये समान कार्य, समान वेतन जैसे कानून का प्रावधान किया जाए। महिलाओं को संसाधानों, रोजगार, बाजार एवं व्यापार, सूचना व टेक्नोलॉजी में बराबरी का हिस्सा मिले। कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न एवं अन्य तरह के भेदभाव को दूर किया जाए। गरीब महिलाओं को आर्थिक अवसर प्रदान किये जाएँ-कम खर्चे के घर, भूमि, प्राकृतिक संसाधन उधार एवं अन्य सेवाएं दी जाएं। पर्यावरण संबंधी नीतियों के निर्माण में औरतों को शामिल किया जाए। औरतों के विकास की जिम्मेदारी सरकार में ऊँचे स्तर पर सौंपी जाए।