उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- विकास के अभाव के साथ कश्मीर संकट का संदर्भ बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- कश्मीर संघर्ष को बढ़ाने और तीव्र करने में विकास की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।
- साथ ही साथ इस संकट के लिये ज़िम्मेदार अन्य कारकों को भी बताते हुए निष्कर्ष लिखिये।
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कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।
कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
- कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
- हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
- इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
- अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
- निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
- फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
कश्मीर संकट भारत के भीतर और बाहर सबसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दों में से एक रहा है। इस संकट का कारण विभिन्न कारकों को माना जाता है, जिसमें इस क्षेत्र में विकास का अभाव, जो कि सरकार के प्रति स्थानीय जनों का असंतोष, अतिवादिता (कट्टरता), पथराव और अलगाववादी मांगों का कारण है।
कश्मीर के विकास और समस्याओं के मध्य संबंध:
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस.), जो कि वर्ष 2015-16 में किया गया था, इसके चौथे चरण के हालिया आँकड़ों पर एक नज़र डालें तो यह दर्शाता है कि संकेतकों पर जम्मू और कश्मीर का औसत विकास अखिल भारतीय औसत या उग्रवाद प्रभावित राज्यों, जैसे कि असम, नागालैंड, मणिपुर और छत्तीसगढ़ के साथ तुलना में बेहतर पाया गया है।
- कश्मीर ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर कई राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन इसका मुख्य कारण केंद्र सरकार द्वारा किये गए अनुपातहीन व्यय को माना जा सकता है। 2000-16 के बीच अकेले जम्मू एवं कश्मीर को केंद्र द्वारा राज्यों को दिये गए कुल धन का 10 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ है, जो कि देश की कुल जनसंख्या के केवल 1 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है।
- हालाँकि कश्मीर के संकट के लिये, सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर की आबादी में 0 से 14 वर्ष की आबादी का भाग, इसी आयुवर्ग की अखिल भारतीय (31%) आबादी की तुलना में थोड़ा अधिक था। हालाँकि कर्फ्यू, विरोध प्रदर्शन और आतंकवादियों द्वारा स्कूलों को लक्षित करने के कारण छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। पथराव और अन्य विध्वंसक गतिविधियों के प्रति युवाओं को प्रेरित और गुमराह किया जाता है।
- इस सबके अलावा, कश्मीर में रोज़गार सृजन भी एक मुद्दा है, जो कि अर्थव्यवस्था में कम निवेश से जुड़ा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जम्मू और कश्मीर में भारत के अन्य भागों और अन्य संघर्षग्रस्त राज्यों की तुलना में पुरुष श्रमिकों (जो एक वर्ष में छह महीने से अधिक के लिये कार्यरत हैं) की हिस्सेदारी बहुत कम थी।
- अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठन डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा संपन्न कश्मीर मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015 में पाया गया कि कश्मीर घाटी में 45% वयस्क मानसिक पीड़ा के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं, जिनमें से हर पाँच में से एक वयस्क या 19% वयस्क जनसंख्या अभिघातजन्य तनाव विकार (पी.टी.एस.डी.) के प्रमुख लक्षणों को प्रदर्शित करते हैं। सर्वेक्षण ने राज्य में 41% वयस्कों में अवसाद के प्रसार को दर्शाया है। इसके विपरीत भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 ने एकल अंकों में अखिल भारतीय स्तर पर अवसाद का भार डाला है।
- निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर निवेश आकर्षित करने, रोज़गार सृजित करने, विनिर्माण या सेवा केंद्र बनने और अपने नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में दूसरों से पीछे रह गया है। इन सभी ने एक साथ प्रचलित सामाजिक स्थितियों और राज्य मशीनरी के प्रति कश्मीरी धारणा को प्रभावित किया है।
- फिर भी कश्मीर में इस तरह के संघर्ष को शायद ही कभी एक कारण से परिभाषित किया जा सकता है। वर्षों के सशस्त्र संघर्षों, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और भारी सैन्यीकृत वातावरण ने राज्य की आबादी को भावनात्मक रूप से पीड़ित किया है।
निष्कर्ष: इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।
इस संघर्ष को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिये भारत को सीमा पार आतंकवाद से सख्ती से निपटने के साथ ही मानवीय दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है, ताकि स्थानीय युवाओं के लिये बेहतर शैक्षिक और आर्थिक संभावनाएँ उत्पन्न हो सकें।