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प्रश्न :
क्या आप इस मत से सहमत हैं कि नैतिकता एवं राजनीति एक-दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं? (150 शब्द)
19 May, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्नउत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- नैतिकता और राजनीति के मध्य विद्यमान कथित अंतर्विरोध का उल्लेख कीजिये।
- उनके मध्य संबंधों का आकलन कीजिये और अपने तर्कों को उदाहरणों सहित प्रस्तुत कीजिये।
- कथन के संदर्भ में अपनी सहमति या असहमति प्रस्तुत कीजिये और राजनीति की लोकप्रिय धारणा को पुन: प्रस्तुत करने की आवश्यकता के साथ निष्कर्ष लिखिये।
नैतिकता और राजनीति को मानव जीवन के पूर्णतया विपरीत क्षेत्रों (डोमेन) के रूप में देखा जाता है। जहाँ एक तरफ राजनीति देश के शासन से संबंधित गतिविधियों को दर्शाती है, वहीं दूसरी ओर नैतिकता नैतिक-मूल्यों के पालन की मांग करती है। दीर्घकाल से ही इस विरोधाभास ने राजनेताओं और विचारकों को चिंतित किया है जिसमें कई लोग इसका पक्ष भी लेते हैं। उदाहरण के लिये- मैक्यावेली और कौटिल्य जैसे राजनीतिक दार्शनिकों ने राजनीति में नैतिकता को राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में एक अवरोध के रूप में संदर्भित किया।
नैतिकता और राजनीति संगत हैं या विपरीत-
राजनीति में कहा जाता है कि धोखा देने, नफरत-पैलाने, दुष्प्रचार और कानून के आधार पर मैक्यावेलियन सिद्धांत का उपयोग करना शामिल है। इन सभी प्रथाओं को नैतिक जीवन में नकारा गया है, किंतु राजनेता इन रणनीतियों का प्रयोग सत्ता की प्राप्ति हेतु करते हैं। उदाहरण के लिये- भारत में हम देखते हैं कि कई बेईमान नेताओं के राजनीतिक जीवन पर अपराध, खरीद-फऱोख्त, राजनीतिक प्रतिशोध, पैसा तथा बाहुबल जैसी अवांछित प्रवृत्तियाँ हावी हैं, जो अपने चरित्र और कर्मों में नैतिक कमियों के बावजूद चुनाव जीतते हैं। इतिहास में भी नैतिकता की अवहेलना ने हिटलर, मुसोलिनी और ईदी अमीन जैसे अनेक निरंकुश नेताओं को जन्म दिया है, जिन्होंने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के वशीभूत होकर बड़े पैमाने पर हिंसा को बढ़ावा दिया।
नैतिकता तथा लक्ष्य-उन्मुख निर्णय लेने की अपनी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राजनीति में ‘व्यावहारिक राजनीति’ जैसी नई अवधारणा को शामिल किया गया है और राजनेताओं ने स्वयं को ऐसे राजनीतिक मानकों के अनुयायियों के रूप में सम्मिलित करने के लिये प्रतिस्पर्द्धा भी की। ऐसा शायद उन्होंने इसलिये किया कि राजनीति में नैतिकता को उन्होंने एक आवश्यक उपकरण माना।
किंतु इन सभी भ्रांतियों का एक व्यक्ति ने खंडन किया जो कि संत होने के बावजूद राजनीति के दलदल में फँसने से नहीं चूका, उनका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। उनके द्वारा चिह्नित सात सामाजिक पापों में से एक ‘नैतिकता के बिना राजनीति’ भी है। अपने राजनीतिक जीवन के दौरान उन्होंने अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं किया तथा अपने जीवनकाल में आधुनिक इतिहास के चौंकाने वाले राजनीतिक चमत्कारों में से एक का निर्माण किया, उदाहरण के लिये एक भी गोली चलाए बिना (बिना किसी असंगत क्रिया का पालन किये) दुर्जेय ब्रिटिश शाही अवसंरचना को उन्होंने ध्वस्त कर दिया।
राजनीति में नैतिकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिये महात्मा गांधी अकेले राजनेता नहीं थे। विश्व भर में हमारे पास अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला जैसे अनेक नेताओं के अनेकानेक उदाहरण विद्यमान हैं जिन्होंने राजनीति में नैतिक मानकों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया। उदाहरण के लिये, महाभारत में युधिष्ठिर को धर्मराज के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसका अर्थ है कि धर्म के धारक होने के कारण वे हमेशा न्याय, शांति और सहिष्णुता के नैतिक आदर्शों से प्रेरित थे।
नैतिक राजनीति एक वांछनीय लोकतांत्रिक मूल्य है जो तब फलीभूत होती है जब एक राजनीतिक प्रणाली में सामाजिक-आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार, असमान प्राकृतिक संसाधन वितरण जैसी असमान प्रथाओं व असमानता का उन्मूलन होता है।
अंत में यह कहना उचित होगा कि नैतिकता और राजनीति एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। राजनीति में नैतिकता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि जीवन के किसी अन्य पहलू में इसकी आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में राजनीति को सामान्यत: ‘विजेता सभी को हासिल कर लेता है’ (विनर टेक्स ऑल) के प्रिज्म से देखा जाता है, किंतु हमें राजनीति की इस परिभाषा को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। इसमें हमें नैतिक आयामों को भी शामिल करना चाहिये। महाभारत में भी कहा गया है- ‘यतो धर्म: ततो जय:’ अर्थात् राजनीतिक जीवन में सिद्धांतों को बनाए रखने में ही जीत निहित है।
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