न्यायपालिका सहित सार्वजनिक सेवा के हर क्षेत्र में निष्पादन, जवाबदेही और नैतिक आचरण सुनिश्चित करने के लिये एक स्वतंत्र और सशक्त सामाजिक अंकेक्षण तंत्र परम आवश्यक है। सविस्तार समझाइये। (150 शब्द)
उत्तर :
सामाजिक अंकेक्षण एक विधिक रूप से अनिवार्य प्रक्रिया है, जहाँ संभावित तथा विधिक लाभार्थी किसी कार्यक्रम के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करते हैं तथा इस प्रयोजनार्थ आधिकारिक रिकॉर्ड से ज़मीनी वास्तविकता की तुलना की जाती है। भारत में सामाजिक अंकेक्षण को 2005 में ही महात्मा गांधी रोज़गार गारंटी अधिनियम के लिये अनिवार्य बनाया गया था, तब से अब तक इसने न्यायपालिका सहित सार्वजनिक सेवा के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी आवश्यकता दर्ज कराई है:
- यह शासन पर अनुकूल प्रभाव डालते हुए योजना की दक्षता और प्रभावकारिता में सुधार करता है।
- सोशल ऑडिट का उपयोग यह निर्धारित करने लिये किया जाता है कि किसी व्यक्ति समुदाय के लिये इच्छित लाभ उन तक पहुँचा है या नहीं।
- समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों हेतु यह मुख्य धारा से जोड़ने का एक साधन है, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले उस गरीब तबके को, जिस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता है। उदाहरण के लिये, संविधान के 73 वें संशोधन ने ग्राम सभाओं को अन्य कर्त्तव्यों के अलावा सोशल ऑडिट करने का अधिकार दिया।
- सोशल ऑडिट पद्धति में ऑडिट अनुशासन की आवश्यकताओं के साथ लोगों की भागीदारी निगरानी शामिल है।
- सोशल ऑडिट का लक्ष्य स्थानीय सरकार में सुधार करना है, अर्थात् स्थानीय निकायों में जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ावा देना है। नियमित सोशल ऑडिट स्थानीय सरकारों की कार्यप्रणाली की जवाबदेही और खुलेपन में सुधार करने में सहायता करती है।
- योजना में पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिये राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 ( नरेगा ) की धारा -17 के तहत नियमित 'सामाजिक लेखा परीक्षा' (सोशल ऑडिट) भी आवश्यक है।
- सोशल ऑडिट पर्यावरण और आर्थिक विचारों के अलावा, सामाजिक परिणामों के अक्सर अनदेखे किये गए विषयों पर ध्यान केंद्रित करती है तथा पूर्ण नीति समीक्षा में सहायता करती है।
उपर्युक्त बिंदुओं के आलोक में 'सोशल ऑडिट' की आवश्यकता को समझा जा सकता है, लेकिन इसके मार्ग में बहुत - सी चुनौतियाँ भी हैं। नतीजतन ' सोशल ऑडिट ' में नीतिगत लक्ष्यों और परिणामों के बीच की खाई को पाटने की काफी संभावनाएँ हैं।