प्रश्न. भारत में विकास प्रक्रिया का एक बड़ा परिणाम जनजातीय और अन्य हाशिये पर मौजूद समुदायों का विस्थापन है। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)
12 Apr, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय
हल करने का दृष्टिकोण:
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‘यदि आप कष्ट उठा रहे हैं, तो आपको देश के हित में कष्ट उठाने चाहिये’ - वर्ष 1948 में जवाहरलाल नेहरू ने यह वाक्य हीराकुंड बांध के लिये विस्थापित किये जानेवाले ग्रामीणों से कहा था। स्वतंत्रता के बाद से, हमारी आधुनिक विकास प्रक्रिया से उत्पन्न होने वाली नकारात्मकताओं का सामना करने में जनजातीय और हाशिए पर मौजूद अन्य समुदाय सबसे आगे रहे हैं। इन समूहों का विस्थापन इस प्रक्रिया के प्रमुख परिणामों में से एक रहा है, क्योंकि वे भारत के हरे-भरे जंगलों, बहती नदियों और सबसे मूल्यवान खनिजों के बीच रहते हैं।
जैसे इन संसाधनों का बाज़ार मूल्य बढ़ने लगा, विकास के नाम पर जनजातीय लोगों को वाणिज्यिक वनीय उद्यमों, बड़े व छोटे बांधों और खानों के लिये मार्ग प्रदान करना पड़ा।
जैसा कि समाजशास्त्री वाल्टर फर्नांडेस ने कहा है कि विकास परियोजनाओं के नाम पर जिन लोगों को विस्थापित किया गया है उनमें से 40% जनजातीय लोग हैं, जबकि वे कुल जनसंख्या के केवल 8% ही हैं।
अतीत में, टिहरी और सरदार सरोवर जैसी बांध परियोजनाओं के लिये हजारों लोगों को विस्थापित किया गया और बड़ी संख्या में लोगों को दशकों में चार-पांच बार हटाया गया। उदाहरण के लिये - मध्य प्रदेश के तीस हजार ग्रामीणों को पहले रिहिन्द बांध के निर्माण के दौरान (50 के दशक के अंत में) विस्थापित किया गया; उसके बाद पुन: 70 के दशक के मध्य जब वहाँ कोयला पाया गया तब हटाया गया; तीसरी बार जब उद्योगों के लिये जगह बनाने के लिये उन्हें हटाया गया; और अंत में फिर से जब 80 के दशक के अंत में सिंगरौली ताप विद्युत स्टेशन बनाया गया तब उन्हें उस स्थान से विस्थापित किया गया।
जनजातीय और हाशिए पर मौजूद जनसंख्या अपने अस्तित्व के लिये उन किसानों के विपरीत जो व्यक्तिगत रूप से भूमि स्वामी होते हैं, पारंपरिक रूप से सामान्य संपत्ति पर निर्भर करती है। इस प्रकार, प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकारों को आसानी से विनियोजित किया जाता है, उदाहरणार्थ- वन गुज्जर तथा राजाजी नेशनल पार्क के खानाबदोश अपने निष्कासन एवं किसी भी कानूनी सहायता से वंचित किये जाने का विरोध कर रहे हैं।
जनजातियों को सशक्त बनाने तथा अधिकार प्रदान करने के लिये वन अधिकार अधिनियम 2006, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013, पंचायत (अनुसूचित के लिये क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम 1996 जैसे पर्याप्त कानून होने के बावजूद; भूमि संघर्ष और पुनर्वास से संबंधित मुद्दे अभी भी कायम हैं। उदाहरणार्थ- ओडिशा के नियामगिरी पहाड़ियों में बॉक्साइट खनन के विरूद्ध डोंगरिया कोंध जनजातियों का विरोध।
हमारी विकास प्रक्रिया को एकतरफा नहीं किया जाना चाहिये, जिससे जनसंख्या के केवल विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को ही लाभ हो। इसके अतिरिक्त किसी भी विकास गतिविधि में, सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन और जनजातीय तथा हाशिये पर मौजूद लोगों के अधिकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये, जिसके बिना समावेशी विकास की कल्पना अधूरी रह जाएगी।